कई मुद्दों पर घिरी हुई आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के दाखिले में दिल्ली के छात्रों को आरक्षण का शिगूफा छोड़कर खुद मध्यावधि चुनाव के संकेत देती दिख रही है। केंद्रीय मंत्री विजय गोयल समेत कई नेता इस मुद्दे को पहले उठाते रहे हैं। प्रवासियों (खास करके पूर्वांचल मूल निवासियों) के भारी समर्थन से दिल्ली में रिकार्ड बनाकर विधानसभा चुनाव जीतने वाली ‘आप’ की सरकार अब दिल्ली वालों की पार्टी बनने की कोशिश में है। माहौल यह बनाया जा रहा है कि प्रवासियों के वोट तो उन्हें मिल जाएं लेकिन उन्हें कोई फायदा नहीं दिया जाए।
इस समय दिल्ली के छात्रों का एक तबका दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की कठिन दौड़ में है। उनके और परिजनों की सहानुभूति मिलने के लिए लगाए गए इस दांव के खिलाफ कई नेता खुलकर बोलने से परहेज कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष इसे सरकार के नकारापन छुपाने का एक और प्रयास मान रहे हैं। भाजपा सरकार के दिनों में तब के मुख्यमंत्री साहिब सिंह ने दिल्ली के छात्रों को दाखिले में 15 फीसद ज्यादा अंक देने का प्रस्ताव किया था। उसे दिल्ली हाई कोर्ट ने एक निजी याचिका की सुनवाई करते हुए रद्द कर दिया था। अदालत ने कहा था कि दिल्ली देश की राजधानी है, यहां दाखिले में भेदभाव नहीं किया जा सकता है। 29 जून को भाजपा के कुछ सदस्यों की मौजूदगी में दाखिले में आरक्षण के प्रस्ताव को मंजूर करने वाले नेताओं को यह पता है कि डीयू केंद्रीय विश्वविद्यालय है, उसमें बदलाव संसद ही कर सकती है। सरकार ने केंद्र सरकार से ऐसा करने का अनुरोध किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के 28 कॉलेज ऐसे हैं जिनमें 95 फीसद अनुदान दिल्ली सरकार देती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने कहा कि दिल्ली सरकार को पता है कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। अगर वास्तव में उन्हें ऐसा कुछ करना है तो उन कॉलेजों को डीयू से अलग करवा लें। केवल राजनीति करने के लिए कोई मुद्दा बनाने का क्या मतलब है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और सांसद मनोज तिवारी ने कहा कि डीयू में वही कानून लागू होने चाहिए जो अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं। दिल्ली सरकार के पास अपना विश्वविद्यालय तो है ही, जरूरत हो तो और बनाएं लेकिन विधान कैसे बदल देंगे? वास्तव में केजरीवाल सरकार दिल्ली के लोगों को ठगने का काम कर रही है। अपनी कमियों को ढंकने के लिए इस तरह शिगूफा छोड़ती रहती है। इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता महाबल मिश्र ने कहा कि पहले तो यह तय किया जाए कि दिल्ली का नागरिक कौन है। कितने साल पहले दिल्ली का मतदाता बनने वाले के बच्चे को आरक्षण मिलेगा। दिल्ली भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे का कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों से अलग विधान क्यों बनना चाहिए? अगर जरूरी लगे तो दाखिले के लिए परीक्षा हो सकती है, जैसा कई संस्थान करते हैं।
भाजपा नेता मेवाराम आर्य ने तर्क दिया कि आरक्षण तो दूर दिल्ली विश्वविद्यालय के विधान में आसानी से कोई बदलाव ही संभव नहीं है। दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश है, इसलिए यहां कोई विशेष आरक्षण हो ही नहीं सकता है। पूर्व विधायक पीके चांदला ने कहा कि यह सरकार वही करने का प्रयास कर रही है जो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। कांग्रेस नेता चतर सिंह ने कहा कि शायद सरकार को इसका अंदाजा हो गया है कि मध्यवधि चुनाव जल्दी होने वाले हैं। इसलिए वे जबरन चुनावी मुद्दे खोजने में लग गए हैं।
दिल्ली में दाखिला बड़ी समस्या है। 1993 में दिल्ली में विधान सभा बनने के बाद तकनीकी विषयों के लिए कॉलेजों को मान्यता देने के लिए तब की भाजपा सरकार ने गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। शीला दीक्षित की सरकार में उससे मान्यता लेने वाले कॉलेजों की संख्या सौ से ज्यादा हो गई। कई कॉलेजों ने तकनीकी विषयों के अलावा सामान्य पाठ्यक्रम भी शुरू किए। इस विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे बड़ा उद्देश्य तो यही था कि दिल्ली के छात्र-छात्राओं को तकनीकी विषयों की पढ़ाई के लिए दूसरे राज्यों में नहीं जाना पड़े। दूसरा उद्देश्य छात्रों की बढ़ती संख्या के हिसाब से दिल्ली में शिक्षण संस्थान उपलब्ध करवाना था। बाद में विधि विश्वविद्यालय, डॉक्टर भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली तकनीकी विश्वविद्यालय समेत अनेक विश्वविद्यालय शुरू होते रहे। सालों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय ने किसी नए कॉलेज को क्षमता से ज्यादा होने से संबद्ध करने से इनकार कर दिया था। यह समस्या अपने आप में बड़ी है कि दिल्ली से हर साल 12वीं पास करने वाले करीब दो लाख छात्र दाखिले के लिए कहां जाएं। वैसे इन विश्वविद्यालयों के अलावा दिल्ली में मौजूद कई विश्वविद्यालयों (जामिया, लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय आदि ) में भी बड़ी संख्या में दाखिले होते हैं। बावजूद इसके दिल्ली सरकार को लगता है कि अभी और संस्थान खोले जाने चाहिए तो उसके लिए प्रस्ताव करें, न कि जबरन जो संस्थान हैं उसमें आरक्षण का शिगूफा छोड़ें।
