रतन टाटा अपनी सादगी और दरियादिली के लिए जाने जाते हैं। टाटा ग्रुप के फाउंडर जमशेदजी टाटा अपने निधन के 117 वर्षों के बाद भी दुनिया के सबसे बड़े दानवीर के रूप में जाने जाते हैं। हुरुन रिसर्च एडेलगिव फाउंडेशन की सूची में वह शीर्ष पर हैं। अगर मौजूदा समय के हिसाब से गणना करें तो उन्होंने 7.60 लाख करोड़ रुपये दान किये थे। उनकी दानवीरता की कई कहानियां हैं। व्यापार और कारोबार के साथ जमशेदजी टाटा लोगों की भलाई का काम करते ही रहते थे।

1896 में उन्होंने बॉम्बे के गवर्नर को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि अब वह पर्याप्त धन कमा चुके हैं और अब लोगों की मदद करना चाहते हैं। उन्होंने लिखा था कि कृषि प्रधान इस देश को अब औद्योगिक आधार की ज़रूरत है। उन्होंने अपनी कमाई का तिहाई हिस्सा दान करके एक इंस्टिट्यूट बनाया जिसे 1909 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस का नाम दिया गया।

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लंदन में पढ़ाई पूरी करने के बाद वह पिता के साथ पारसी प्रीस्टहुड के काम में जुट गए थे। 1857 में वह हॉन्ग कॉन्ग चले गए और वहां एक फर्म बनाई। 1868 में उन्होंने 21 हजार की पूंजी के साथ टाटा ग्रुप की शुरुआत की थी। चिंचपोकली की बंद पड़ी मिलें उनके लिए वरदान साबित हुईं। उन्होंने इन्हें कॉटन मिल में बदल दिया और 1874 में सेंट्रल इंडिया स्पिनिंग कंपनी बना दी।

दानवीरता की कहानियां

1898 में ब्यूबोनिक प्लेग की वजह से बॉम्बे में बहुत सारे लोगों की जान चली गई। इस बीमारी की स्टडी करने के लिए जमशेदजी टाटा ने बड़ी पूंजी खर्च की। उन्होंने रूस के डॉक्टर की मदद की। ‘पारसी प्रकाश’ पुस्तक के मुताबिक सूरत में बाढ़ प्रभावित इलाकों में वह राहत सामग्री पहुंचवा रहे थे। इसके अलावा 1883 में इटली में आए भूकंप में भी उन्होंने लोगों की बढ़-चढ़कर मदद की।

1892 में उन्होंने टाटा दान योजना शुरू की जिसके तहत भारतीय छात्रों को इंग्लैंड में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप दी जाती थी। अपनी वसीयत में भी उन्होंने लिखवा दिया था कि संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा बड़े बेटे दोराब जमशेदजी और एक तिहाई रुतोनजी को दिया जाए। बाकी एक तिहाई विश्वविद्यालय को दे दिया जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि क्रियाकर्म में दो हजार से ज्यादा न खर्च किया जाए और उनके साथ काम करने वालों का वेतन बाधित न हो।