दिल्ली की सातों लोकसभा सीट पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) में तालमेल पर पूर्णविराम न लगने से दिल्ली का राजनीतिक माहौल साफ नहीं हो रहा है। दिल्ली में लोकसभा की सातों सीटों पर मतदान 12 मई को होने वाला है। इस लिहाज से दलों के पास चुनाव प्रचार के लिए पर्याप्त समय है लेकिन बिना कांग्रेस से तालमेल पर अंतिम फैसला हुए ‘आप’ ने सभी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर अपना चुनाव प्रचार तेज कर रखा है उससे दूसरे दलों में बेचैनी हो रही है। अभी दिल्ली की सभी सातों सीटों पर भाजपा के सांसद हैं। कायदे में होना चाहिए था कि भाजपा सबसे आसानी से अपना उम्मीदवार घोषित कर देती लेकिन सबसे ज्यादा उठापटक भाजपा में ही हो रही है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा के सभी दसों सांसदों के टिकट कटने के बाद दिल्ली के सांसदों की जान सांसत में है। छत्तीसगढ़ के सांसदों में सात बार के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री रमेश बैस और लगातार 15 साल मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह के बेटे का टिकट भी शामिल था। टिकट काटे जाने का कोई कारण नहीं बताया गया, लेकिन कहा जा रहा है कि एक कारण पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी की अप्रत्याशित हार रही है। दिल्ली में तो 2014 के लोकसभा चुनाव के दस महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा 46 से 32 फीसद पर आ गई। दिल्ली के नेताओं को राहत इस बात से मिली कि 2017 के निगमों के चुनाव में भाजपा तीनों निगमों में फिर से काबिज हो गई। पार्टी सूत्रों के मुताबिक, पार्टी के आंतरिक सर्वे में ज्यादातर सीट मौजूदा उम्मीदवार के रहते कठिन मानी जा रही है। सात में से तीन तो बदलने के प्रस्ताव कई बैठकों में आ चुके हैं लेकिन शायद पार्टी नेतृत्व उससे ज्यादा बदलाव ना कर दे। माना जा रहा है कि पार्टी टिकट तय करने में देरी ‘आप’ और कांग्रेस के बीच समझौते पर अंतिम फैसला ना होने से हो रहा है। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी अप्रैल के पहले हफ्ते में उम्मीदवार घोषित करने की संभावना जता रहे हैं। ‘आप’ तो लगातार कांग्रेस से समझौते के प्रयास में लगी है और सीधे उसके नेताओं से बात ना बनने से कभी शरद पवार से तो कभी फारूख अब्दुल्ला से पैरवी करवा रही है। दूसरी तरफ पार्टी पूरी तरह से अपने उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार कर रही है और कांग्रेस पर तंज मारने का कोई भी अवसर छोड़ नहीं रही है।
कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला होते रहने पर देश की हवा का दिल्ली पर असर होता है। 1977 में सातों सीटें जनता पार्टी को मिलीं तो 1980 में नई दिल्ली सीट पर चुनाव लड़ रहे अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा छह सीटें कांग्रेस ने जीतीं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में सभी सीटें कांग्रेस ने जीतीं जबकि 1989 में सातों सीटें कांग्रेस हारी। 1991 और 1996 में भाजपा ने पांच-पांच, 1998 में छह और 1999 में सातों सीटें भाजपा ने जीतीं। 2004 में कांग्रेस को छह और 2009 में सातों सीटें कांग्रेस ने जीतीं। 2014 में देश में हवा बदली तो सभी सीटें वापस भाजपा ने जीतीं। इस बार कोई हवा अभी तक दिख नहीं रही है। 2015 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को 70 विधानसभा में 67 सीटों और 54 फीसद वोट मिले। वहीं ‘आप’ उसके बाद के हर चुनाव में कमजोर होती गई। राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव में उसके उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई। 2017 के निगम चुनाव में अगर बगावत ना होती तो कांग्रेस दूसरे नंबर पर होती जैसा राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव और 2016 में निगमों के उपचुनाव आदि में हुआ था। कांग्रेस को मुख्य रूप से दलित, अल्पसंख्यक, कमजोर वर्ग के लोगों, पूर्वांचल के प्रवासी (बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मूल निवासी) और दिल्ली देहात के लोगों का बड़ा समर्थन था। उन्हीं के बूते कांग्रेस सालों दिल्ली पर राज करती रही। अब इन सभी वर्गों में कांग्रेस से ज्यादा पैठ ‘आप’ की हो गई है। माना जाता है कि अल्पसंख्यक उसी दल के साथ जाएगा जो भाजपा को हराता दिखे।
यह सतही तौर पर सही लग रहा है कि गैर भाजपा मतों के विभाजन से भाजपा आसानी से चुनाव जीत जाएगी। इसलिए ‘आप’ और कांग्रेस का एक धड़ा समझौता करके चुनाव लड़ने के प्रयास में लगा हुआ है, जबकि कांग्रेस का एक धड़ा यह मान रहा है कि जिस ‘आप’ ने उसे दिल्ली की राजनीति में हाशिए पर ला दिया उसे ताकत क्यों दी जाए। दूसरा जब चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगा तो चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन से होगा, उसमें ‘आप’ की भूमिका ज्यादा नहीं रह जाएगी। लेकिन खतरा यह भी है कि दोनों दलों के अलग लड़ने पर अगर भाजपा सभी सातों सीटें जीत जाती है तो विपक्ष की राजनीति को जबरदस्त धक्का लगेगा।