दिल्ली सरकार ने भले ही विवादास्पद आंबेडकर नगर से मूलचंद तक बने बस रैपिड ट्रांजिट(बीआरटी) कॉरिडोर को तोड़ने का फैसला कर लिया लेकिन दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को सर्वसुलभ, किफायती बनाने के लिए संशोधन के साथ इसे लाए बिना दिल्ली की परिवहन व्यवस्था को सुचारू बनाना संभव ही नहीं है।

शहरी परिवहन पर काम करने वाले लोगों के साथ सीएसई(विज्ञान और पर्यावरण केंद्र) ने सरकार के फैसले पर तुरंत ही सवाल उठाकर उसे कार लाबी के दबाव में उठाया गया कदम होने तक का आरोप लगा दिया है। दिल्ली में अस्सी लाख से ज्यादा वाहन पंजीकृत हैं और एनसीआर(राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) से हर रोज लाखों की तादाद में निजी वाहन दिल्ली आते हैं। 1483 वर्गकिलोमीटर की दिल्ली का भविष्य में कोई विस्तार होता दिख रहा है और न ही करीब 33 हजार किलोमीटर लंबी सड़कों को बढ़ाने का कोई चमत्कार होने वाला है।

दस साल पहले राईड्स ने दिल्ली सरकार के कहने पर एक सर्वे किया था, जिसमें कहा गया था कि दिल्ली की सार्वजनिक परविहन प्रणाली तभी कारगर होगी जब एक से अधिक तरह की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को लागू किया जाए। इसके लिए उन्होंने 575 किलोमीटर लंबे 46 कॉरिडोर बनाने का सुझाव दिया था। उसमें मेट्रो रेल तो तय से ज्यादा इलाकों में चलने लगी और सफल साबित भी हो रही है लेकिन दिल्ली की सबसे ज्यादा लोकप्रिय सार्वजनिक परिवहन सेवा बस से चलने वाले यात्रियों की संख्या अनुपातिक रूप से लगातार कम हो रही है।

दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री इसी दबाव के चलते सफाई देने पर विवश हुए कि बीआरटी कॉरिडोर बनाने की योजना पर भविष्य में फिर फैसला किया जाएगा। दिल्ली की आप सरकार ने दस हजार नई बसों को खरीदने की घोषणा कर रखी है। कभी दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन से यात्रा करने वालों में बस के सवारियों का अनुपात 60 फीसद था। वह अब घटकर 40 फीसद रह गया है अगर यही हाल रहा तो यह अनुपात 2020 में घटकर 20 फीसद रह जाने का खतरा है। ब्लू लाइन बसों को दिल्ली की सड़कों से हटाने के दौरान दिल्ली सरकार ने हाई कोर्ट में हलफनामा देकर दस हजार बसें चलाने का वायदा किया था। बसों को सही गति से और हर इलाके में आसानी से पहुंचने के लिए खुली सड़कें चाहिए उसका नाम चाहे बीआरटी दिया जाए या कुछ और। गलती पहला कॉरिडोर का चयन करते हुई और हड़बड़ी में उसके डिजाइन में गड़बड़ी की गई।

पहली, आंबेडकर नगर से मूलचंद तक की सड़क पहले से व्यस्त सड़क है उस पर प्रयोग होना ही नहीं चाहिए था। दूसरी, कॉरिडोर बीच में होने के बजाए सबसे किनारे होने चाहिए था। कॉरिडोर तो बनना था दिल्ली गेट तक विवाद होने से मूलचंद तक रोक दिया गया। जब उस छोटे से इलाके पर करीब दो सौ करोड़ रुपए खर्च किए गए तो चिराग दिल्ली लाल बत्ती को ही खत्म करके उस पर कुछ और खर्च करके सलीमगढ़ फ्लाइओवर जैसा दो फ्लाइओवर बना दिया जाता। एक तो फ्लाइओवर है ही। इतना ही नहीं जब जाम लगने लगा तो फौरन ही नक्शे में बदलाव करना चाहिए था।

इस कोरिडोर का लगातार विरोध होता रहा और तब की शीला दीक्षित सरकार असमंजस में पड़ी रही। एक तरह के लोगों का यह सोच था कि पहले उन इलाकों में कोरिडोर बनाया जाए जहां कोरिडोर के लिए सड़क चौड़ी करने की संभावना हो। इतना ही नहीं यह सिद्धांत बना लिया जाए कि किसी भी लाल बत्ती को कोरिडोर के चलते न रोकी जाए। लंबे समय तक परिवहन मंत्री रहे अरविंदर सिंह ने इसी को आधार बना कर तब के परिवहन आयुक्त आरके वर्मा आदि के जरिए करीब दो सौ किलोमीटर की 14 कॉरिडोर बनवाने की योजनाएं बनाई गईं।

इसमें कई संशोधन भी हुए। लेकिन विरोध होने से वे योजनाएं सिरे नहीं चढ़ पार्इं। हालात ऐसे हो गए कि 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित और उनके कमोवेश सभी परिवहन मंत्री कोरिडोर पर अड़ने के बजाए टालमटोल करते रहे। इसी दबाव में केजरीवाल सरकार ने न केवल 35 करोड़ रुपए खर्च करके दिल्ली के पहले कोरिडोर को तोड़ने का फैसला किया बल्कि भविष्य में बनने वाले 14 कॉरिडोर की योजना को भी ठंढे बस्ते में डाल दिया है।

दिल्ली में मेट्रो रेल आने से पहले बस ही प्रमुख सार्वजनिक परिवहन के साधन रहे। मैट्रो बनाना मंहगा होने, किराया ज्यादा होने और उसे दिल्ली या एनसीआर में हर इलाके में न पहुंचा पाने के चलते वह बस जैसा मुख्य परिवहन का साधन कभी भी नहीं बन सकता है। एनसीआर योजना फेल होने के बावजूद परिवहन के लिए उसे युद्ध स्तर पर लागू करने के अलावा दिल्ली में वाहनों की भीड़ और वाहन प्रदूषण कम करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। जैसा राइड्स ने सुझाया था बस, मैट्रो के अलावा मोनो रेल, इलेकिट्रक ट्राली, रिंग रेल आदि को विकसित करने की जरूरत है।

सबसे प्रमुख तो बस ही है, क्योंकि वह मेट्रो रेल को, रिंग रेल से लेकर गली मोहल्लों में चलने वाले ग्रामीण सेवा, आटो रिक्शा, टैक्सी को सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के लिए पूरक बनाने का काम करेगी। इसमें यह जरूरी है कि जैसा सालों से तय है कि सरकार यानी डीटीसी(दिल्ली परिवहन निगम) और निजी बस आपरेटरों का कोरिडोर दोनों से बस चलवाई जाए जिससे संतुलन बना रहे और किसी एक पर पूरी तरह से निर्भरता न हो।

(मनोज मिश्र)