भय का भ्रम
कोच में लोग भले ही एक सीट छोड़ बैठ रहे हों लेकिन खड़े होने वाले दो गज की दूरी बनाए रखने में लाचार हैं। इसमे कोरोना नहीं है? 150 रुपए नगद भुगतान कर स्मार्ट कार्ड खरीदने में भी कोरोना का भय नहीं, लेकिन टोकन-टिकट देने में कोरोना का भय है! एक गेट खोलने से कोरोना नहीं आता लेकिन तीन गेट खोलने से कोरोना आ जाता है।
किसी ने ठीक ही कहा-आपदा को अवसर में बदलना कोई मेट्रो से सीखे। दूसरे ने कहा- तकनीक जापानी थी, प्रबंधन जो भारतीय हो गया। आम आदमी की फिक्र किसे? आॅनलाइन रिचार्ज की अनिवार्यता से एक तिहाई आबादी वैसे ही यात्रा से बाहर है। बीच बहस में मेट्रो प्रबंधन आ ही जाता है। कोई कहता- उन्हें दिखता नहीं शायद! तो कोई कहता ‘ये सब न दिखना भी उनके प्रबंधन का हिस्सा है’।
हिंदी का तड़का
राष्ट्र भाषा का पखवाड़ा मनाने की रस्म अदायगी केवल सितंबर में ही देखने को नहीं मिलती बल्कि भाषा के सम्मान के नाम पर यह छौंका स्थायी रूप से लगाया जाता दिखता है। अधिकतर सरकारी विभागों की वेबसाइट पर यह बानगी देखी जा सकती है। जहां तमाम विभागों की मूल वेबसाइट तो अंग्रेजी में ही है लेकिन दिखाने के लिए साइट को हिंदी में भी बनाया हुआ है।
लेकिन यह साइट हिंदी में ही जानकारी देगी इसकी गारंटी नहीं है। पृथ्वी मंत्रालय के एक विभाग की एक साइट के हिंदी भाषा वाले पेज पर हिंदी का इस्तेमाल ऐसे ही किया गया है जैसे दाल में तड़के के लिए जीरे का। साइट की हेडलाइन के अलावा कुछ भी हिंदी में नहीं हैं। जैसे ही हिंदी में दी गई लाइनों पर बटन दबाएंगे अंग्रेजी के पन्ने खुलने लगेंगे।
बदलाव की बयार
राजनीतिक दल समय के साथ संगठन में फेरबदल करते हैं तो दलों के कार्यालयों में रौनक बढ़ जाती है। पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं ने प्रदेश कार्यालय में हाजरी लगानी शुरू कर दी है। कुछ नेता तो जैसे इस बदलाव की बयार में बहने लगते हैं उनको इस समय का बेसब्री से इंतजार रहता है। अब कुछ नेताओं को ब्लॉक अध्यक्ष के अलावा पार्टी की दूसरी कोई अन्य जिम्मेदारी मिलने की आशा जगी है।
कुछ नेता और कार्यकर्ता हर छोटे-बड़े कार्यक्रमों में जिस हिसाब से बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। उससे तो यही लगता है कि इस बार पूरी तरह से उम्मीद लगाए बैठे हैं। पर यह तो आगामी दिनों में ब्लॉक अध्यक्ष समेत अन्य पदों पर होने वाले नियुक्ति क बाद ही पता चल सकेगा कि किसकी गोटी फिट बैठी।
दिख रहा फायदा
दिल्ली एनसीआर सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन से नोएडा-ग्रेटर नोएडा के ग्रामीणों को अलग ही फायदा मिल रहा है। वह फायदा पुलिस की व्यस्तता सीमा पर रहने की वजह से अतिक्रमण के खिलाफ चलने वाले अभियान से रुकने से बताए जा रहे हैं। यहां ग्रामीणों और प्राधिकरण का जमीन और अवैध निर्माण को लेकर 36 का आंकड़ा रहा है।
आरोप है कि जिस जमीन को ग्रामीण पुश्तैनी बताता है, उसे प्राधिकरण अधिसूचित क्षेत्र की जमीन मानकर कार्रवाई कर निर्माण ध्वस्त करता है। ऐसे मुद्दों पर प्रशासन से करीब 10-12 साल से विवाद चल रहा है। बताया गया है कि प्राधिकरण में कोविड काल के दौरान अवैध कब्जे और निर्माण को लेकर कई फाइलें तैयार की गई थीं। जिन्हें ध्वस्त किया जाना था लेकिन किसान आंदोलन के चलते पुलिस बल नहीं मिलने से ये कार्रवाई ठप हो गई है।
एतराज हुआ ठंडा
दिल्ली में निगम चुनाव के लिए सरगर्मी तेज हो चुकी है। लेकिन इससे पहले इन सभी दलों को खाली पड़ी सीटों पर उप चुनाव की परीक्षा देनी होगी। इसके लिए दलों ने एक दूसरे पर हमले तेज कर दिए हैं। दिल्ली कांग्रेस लगातार निगमों के वित्तीय हालत पर सवाल उठा रही है। हालांकि निगम का विभाजन कांग्रेस का ही सपना था जो पूरा भी हुआ लेकिन अब यह उतना कारगर नहीं दिख रहा।
अब निगम को फिर से एक करने पर पार्टी के नेताओं से सवाल पूछा जाता है तो वे खुद ही मीडिया से सवाल पूछते नजर आते हैं। हालांकि दबी आवाज में यह भी बता गए कि अगर वर्तमान सरकार चाहती है तो इसे फिर से एक कर वित्तीय संकट से उबारने का रास्ता देख सकती है। मजे की बात तो ये है कि कांग्रेस को इस पर कोई एतराज नहीं।
बेचारगी की हद
दिल्ली के तीनों नगर निगमों का बुरा हाल है पर पूर्वी निगम ने तो अपनी स्थिति बेचारगी जैसे बना ली है। अधिकारी अपने कमरे में बैठे हैं और उन्हें यह भी पता नहीं कि उनके पास किस विभाग का कितना काम है। विभागीय अधिकारी अपने कनिष्ठ से पूछते हैं- यह विभाग मेरे जिम्मे है। जवाब मिलता है, हां सर , आपको अतिरिक्त जिम्मेवारी दी गई है।
यही नहीं, विभागीय प्रमुख को ठंड इतनी लग रही है कि वे हीटर मेज के नीचे रखकर सिर्फ यही कहते हैं कि अगली बार आईए तो हम आपको अपने विभाग की विस्तृत जानकारी दे देंगे। अब भला, ऐसे अधिकारियों से निगम की माली हालत सुधारने से लेकर क्षेत्रीय विकास की उम्मीद की जाए तो खुद को ही धोखा देने जैसे बात कही जाएगी।
-बेदिल
