सुप्रीम कोर्ट को फैसले के बाद सर्वशक्तिमान बनी दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार बस परिवहन व्यवस्था में सुधार ही नहीं कर पा रही है। इसके चलते बस से चलने वाले यात्रियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था सीएसई (विज्ञान और पर्यावरण केंद्र) ने काफी पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अगर हालात में सुधार नहीं हुए तो बस से यात्रा करने वालों की संख्या 20 फीसद तक हो जाएगी। एक दशक पहले यह संख्या 65 फीसद हुआ करती थी। अब 30 के करीब हो गई है। समस्या यही है कि सरकार अपने बूते नई बसें नहीं ले आ पा रही है और जो निजी बस मालिक सरकार की अपनी शर्त्तों पर बस चलाने को तैयार हैं लेकिन उनके प्रस्ताव पर फैसला नहीं कर पा रही है।
एसटीए ऑपरेटर एकता मंच के प्रतिनिधिमंडल को दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलौत ने अगले हफ्ते दोबारा बातचीत का प्रस्ताव दिया है। आरोप है कि एक निजी कंपनी को पांच सौ से एक हजार बस चलाने का ठेका देने पर सरकार और परिवहन आयुक्त वर्षा जोशी में मतभेद हो गया और योजना सिरे नहीं चढ़ पाई। परिवहन आयुक्त ने नियमों का हवाला देकर सरकार के प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। विपक्ष इस पर सरकार को विधानसभा के भीतर और बाहर कटघरे में खड़ा कर रही है। दिल्ली में मेट्रो रेल आने से पहले बसें ही सार्वजनिक परिवहन की मुख्य आधार थीं। मेट्रो बाद भी बसों की उपयोगिता कम नहीं हुई क्योंकि मेट्रो महंगी भी थीं और इसकी पहुंच हर इलाके तक भी नहीं थी। पहले सरकार केवल दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) से यात्री ढोती थी। डीटीसी के घाटे में आने के साथ सरकार ने बसों में कई प्रयोग किए। पहले रेड लाइन बसें एसटीए (राज्य परिवहन निगम) के अधीन चलीं।
विवाद होने पर उसका नाम ब्लू लाइन रखा गया। फिर निजी बसें डीटीसी के अधीन किलोमीटर योजना में चलीं। सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली में व्यावसायिक वाहनों को केवल सीएनजी पर चलने के आदेश के बाद फिर से ब्लू लाइन बसें चलीं। दुर्घटनाओं के बाद ब्लू लाइन बसों हटाई गर्इं। 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने बड़ी तादात में सरकार ने लो फ्लोर बसें उतारी। सरकार ने हाई कोर्ट में 11000 बसों चलाने का हलफनामा दिया। आधी बसें निजी परमिट के बजाए दिल्ली को 17 कलस्टरों में बांट कर कलस्टर योजना की बसों लाने की तैयारी थी। लेकिन अब तक नौ कलस्टर ही नीलाम हो पाए हैं। कुल 1650 बसें ही इस योजना में चल रही हैं। उन्हें औसत 60 रुपए प्रतिकिलोमीटर की दर से हर रोज सवा दो सौ किलोमीटर का भुगतान किया जा रहा है। डीडीसी तो घाटे में ही है। उसकी बसों की संख्या कहने के लिए 2750 है लेकिन कर्मचारियों की कमी के चलते सवेरे के शिफ्ट में करीब 2500 और शाम के शिफ्ट में करीब 1500 बसें ही सड़कों पर आ पा रही हैं।
दिल्ली की सड़कों से वाहनों की भीड़ तब तक कम नहीं होगी जब तक लोगों को आसानी से उनकी जेब के हिसाब से सार्वजनिक परिवहन के साधन न मिलें। इसके लिए राइड्स ने काफी पहले सुझाव दिया था कि दिल्ली में कई तरह के सार्वजनिक परिवहन प्रणाली चलाई जाएं। मेट्रो तो अपनी गति से चल ही रही है। रिंग रेलवे को बेहतर करने के अलावा बसों की सेवा में विस्तार हुए बिना सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में सुधार नहां हो सकता है। अदालत सामान्य बसें दिल्ली में अब चलने देने को तैयार नहीं है और जो आधुनिक मानदंडों के हिसाब से चले को तैयार हैं उन्हें सरकार परमिट देने को तैयार नहीं है।
