दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने को अपना मुख्य एजंडा बनाने वाली आम आदमी पार्टी (आप) के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने ही बुने जाल में फंस गए हैं। ज्यादा के आस में उनके पास जो था, उसे भी वे गवां बैठे हैं। कई चुनावों में हार से पार्टी पहले से ही कमजोर हो चुकी है, वहीं पूर्व मंत्री कपिल मिश्र के लगातार खुलासों ने केजरीवाल की नींद उड़ा दी है। इससे उनका असर इस कदर कम हो गया है कि सरकारी कार्यक्रम के प्रचार के लिए एक निदेशक स्तर के अधिकारी ने कार्यक्रम आयोजित करने से इनकार कर दिया।
जिन उपराज्यपाल को केजरीवाल कोई महत्त्व देने को तैयार नहीं थे, उनके बुलावे पर हर रोज राजनिवास में हाजिरी लगाने पहुंच रहे हैं। इसके अलावा जो काम मुख्यमंत्री को करने चाहिए थे, उन्हें खुलेआम उपराज्यपाल कर रहे हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता अपमानित होकर भी कुछ बोलने की हैसियत में नहीं हैं। पिछले साल 8 अगस्त को आए हाई कोर्ट के फैसले ने सरकार के पर कतर दिए थे। अफसरशाही पहले से ही केजरीवाल टीम से नाराज चल रही थी, उसे हाई कोर्ट के फैसले ने ‘आप’ सरकार को टरकाने का मौका दिया। लेकिन असली संकट उनके बेहद करीबी रहे पूर्व मंत्री कपिल मिश्र के खुलासे से हुआ। उसके बाद से अफसरों ने सरकार को गंभीरता से लेना कम कर दिया है। यह संकट इसलिए भी बड़ा है कि जिस केजरीवाल के नाम पर वोट मिलते हैं, उनके नाम पर ही पार्टी काम करती है, वही भ्रष्टाचार के आरोप में घिर गए हैं। 1991 में 69वें संविधान संशोधन के जरिए दिल्ली को सीमित अधिकारों वाली विधानसभा मिली थी। इसके तहत घोषित 66 विषयों में से 63 राज्य सरकार के पास उसी तरह रहे जैसे अन्य राज्य सरकारों के पास होते हैं। केवल तीन विषय राजनिवास के मामले, कानून-व्यवस्था (दिल्ली पुलिस) और जमीन (डीडीए) केंद्र सरकार यानि उप राज्यपाल के सीधे नियंत्रण में रहे। 1993 में पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा चुनाव जीती। उसके मुख्यमंत्रियों ने केंद्र से प्रयास करके बिजली, पानी, डीटीसी, होमगार्ड और फायर सर्विस दिल्ली सरकार के अधीन करवाए। उसके बाद 15 साल सरकार में रही कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने सीवर और बड़ी सड़कें दिल्ली सरकार के अधीन करवार्इं।
शीला को 2002 में उपराज्यपाल विजय कपूर ने झटका दिया, जब उन्होंने गृह मंत्रालय से सर्कुलर जारी करवाकर विधेयकों को विधानसभा में पेश करने से पहले केंद्र से अनुमति लेने का आदेश करवा दिया। उससे पहले विधेयक पास होने के बाद ही केंद्र की मंजूरी के लिए जाते थे। ‘आप’ की 49 दिन की सरकार हो या फरवरी 2015 में 67 सीटों की प्रचंड जीत से बनी सरकार, मुख्यमंत्री केजरीवाल ने नियमों को नहीं मानना तय किया। तमाम विवाद होते रहे। अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं और काम होने बंद हो गए। राजेंद्र कुमार जैसे अपने करीबी अफसरों से जो फैसले उन्होंने करवाए वह भी वैध नहीं हो पाए। अफसरशाही नाराज हुई। राजेंद्र जेल गए, लेकिन सरकार के रवैये में बदलाव नहीं आया और हर रोज टकराव बढ़ता गया। कई विधेयक नियमों का पालन न करने के चलते केंद्र के पास लटके पड़े हैं।
‘आप’ को पंजाब और गोवा जीतने का भरोसा था। संयोग से न केवल पार्टी दोनों विधानसभा चुनाव हारी बल्कि दिल्ली निगम चुनाव में भी भाजपा की जीत को नहीं रोक पाई। अदालती लड़ाई में भी वह हारे और हाई कोर्ट ने उपराज्यपाल को दिल्ली का बॉस बता दिया। परिणाम हुआ कि पहले से नाराज नौकरशाह सरकार को बार-बार आइना दिखाने लगे। जो काम नियमों में दिल्ली सरकार के सीधे अधिकार में थे, उसे भी अधिकारी उपराज्यपाल के पास भेजने लगे। पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग ने हाई कोर्ट के फैसले के बाद सरकार के काम-काज की जांच के लिए शुंगलू कमेटी बनाई थी। कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद अफसरों को दिल्ली सरकार के फैसलों को टालने का और मौका मिल गया। अन्यथा सरकारी योजना (जीएसटी) का प्रचार करने और लोगों से उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के संवाद करने के फैसले को सूचना निदेशक जयदेव सारंगी लागू करने से मना कर सकते थे। सारंगी ने कहा कि पहले टेंडर होगा फिर कार्यक्रम की मंजूरी लेकर उसे कराया जाएगा। अगर चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री या मंत्री सरकारी योजनाओं को लागू न करवा पाएं या उस बारे में सीधा फैसला न लें पाए तो सरकार का क्या मतलब रह जाएगा। खैर सिसोदिया के धमकाने के बाद उनके कार्यक्रम की व्यवस्था सूचना-प्रसार विभाग ने कर दी है।
इससे भी बुरा हाल मुख्यमंत्री का उप-राज्यपाल ने कर दिया है। कायदे में कानून-व्यवस्था या डीडीए से जुड़े मामलों पर वह सीधी बैठक ले सकते हैं। लेकिन ऐसा कैसे संभव है कि हर मुद्दे पर राजनिवास में बैठक हो और उसमें मुख्यमंत्री शामिल होकर उपराज्यपाल के आदेशों को लागू करवाने का काम करें। कई मामलों पर अदालत ने इस तरह की बैठक करने और साझा रणनीति बनाने को कहा था लेकिन उपराज्यपाल तो हर मुद्दे पर मुख्यमंत्री की तरह खुद बैठक करने लगे हैं। इसके बाद तो मुख्यमंत्री का कोई काम ही नहीं रह जाएगा। केजरीवाल और ‘आप’ इतने बुरे हाल में हैं कि वे इस मुद्दे पर कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं।
’जीएसटी के प्रचार के लिए निदेशक स्तर के अधिकारी ने कार्यक्रम आयोजित करने से कर दिया इनकार
’जो काम अरविंद केजरीवाल को करने चाहिए थे, उन्हें खुलेआम कर रहे हैं उपराज्यपाल

