‘बावला, तूने यह भी समझाया था और छोकरों से तू अलग है। यह मान लेने में ही तेरी भलाई है, न किसी से बराबरी कर, न अपनी इस कमी की उनसे कोई चर्चा। समाज को ऐसे लोगों की आदत नहीं है और वे आदत डालना भी नहीं चाहते। पर मुझे विश्वास है, हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहने वाली। वक्त बदलेगा। वक्त के साथ नजरिया बदलेगा’। प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में रविवार को लेखक मंच पर सामयिक संवाद कड़ी में चित्रा मुद्गल ने सामयिक प्रकाशन से आए अपने बहुचर्चित उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा के इस अंश का पाठ किया तो हाशिए के भीतर हाशिया पर संवाद छिड़ा।
इस बार विश्व पुस्तक मेले की मुख्य विषयवस्तु ‘मानुषी : महिला पर और महिला द्वारा लेखन है’। अभी तक साहित्य और समाज में हाशिए की धारा में स्त्री और अन्य वंचित तबकों की मुख्य रूप से बात होती थी, लेकिन एक पोस्ट बॉक्स के जरिए त्यागी गई संतान और मां की खतो-किताबत से एक किन्नर की आत्मकथा ने लिंग में तीसरी श्रेणी को देखने का नया नजरिया प्रदान किया। अभी हम हाशिए पर स्त्री विमर्श की बात कर रहे थे, लेकिन नाला सोपारा के पोस्ट बॉक्स में एक ऐसी पाती आती है जो विमर्श का दायरा, देखने का नजरिया ही बदल देती है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को कुछ सुविधाएं देने का निर्देश दिया था, तो क्या हम मान लें कि समाज और सत्ता अब तीसरी आवाज को सुनने के लिए तैयार है। इस पर चित्रा मुद्गल कहती हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट कुछ सुविधाएं मुहैया कराने का निर्देश दे सकता है, लेकिन इनके प्रति नजरिया बदलने की बात भी है। क्या आप उनके माथे से कलंक का टीका मिटा सकते हैं? उसकी जड़ें कहां हैं, आपको परिवार तक जाना होगा। मुख्य प्रतिपाद्य यह है कि परिवार के अंदर समाज कैसे आ जाता है कि एक विकलांग बच्चे को खुद से अलग कर दिया गया। हमें घरों को, मां-बाप को कठघरे में लेने की जरूरत है। उन्हें समझाया जाए कि वे जननांगीय विकलांगता की शिकार औलाद को फेंकें नहीं’।
किन्नरों के लिए आरक्षण के बजाय ऐसे बच्चों को फेंकने वालों, दूसरे को सौंप देने वाले मां-बाप को सजा देने का नियम बनना चाहिए। मनुष्य को मनुष्य की तरह देखना चाहिए। जो व्यक्ति सृष्टि को विस्तार देने में भूमिका नहीं निभा सकता, वह काम का नहीं इस असंवेदनशीलता से निकलना चाहिए।पिछले दिनों सिंहस्थ में किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को महामंडलेश्वर बनाने को कैसे देखा जाए के सवाल पर मुद्गल का कहना था कि लिंग पूजक धर्म में लिंगविहीन का क्या काम है? उन्होंने कहा कि खास तरह की धार्मिक मान्यताओं के कारण ही किन्नरों का शोषण होता है। धर्म ने ही उन्हें समाज से बहिष्कृत किया था। आज जरूरत यह है कि मनुष्य को मनुष्य की तरह देखना सिखाया जाए।
कार्यक्रम में समीक्षक दिनेश कुमार ने कहा कि हाशिए पर लिखे उपन्यासों में ऐसी पठनीयता बहुत कम देखने को मिलती है। उपन्यास को समाजशास्त्रीय मंच में तब्दील नहीं किया गया है। कभी-कभी बहुत ज्यादा अनुसंधान और पाठक को ज्ञान देने में रचना बोझिल और अपठनीय हो जाती है। खास बात यह है कि गालियों और वीभत्स दृश्यों के बिना भी यथार्थ का पूरा चित्रण है। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद किन्नरों के प्रति नजरिया बदल जाता है।
विवेक मिश्र ने कहा कि किन्नर जैसे विषय पर लिखी जाने वाली इस किताब में देखने वाली बात यह है कि चित्रा मुद्गल ने भाषा और साफगोई का कैसे निर्वाह किया है। यह उपन्यास पत्र शैली में लिखा गया है और मां-बेटे के बीच का संवाद है। मां और बेटे के बीच की भाषा का दायरा इतना आत्मीय होगा कि आपको कुछ अश्लील नहीं लगेगा। इससे पहले ज्यादातर रचनाओं में दुनिया की दृष्टि से किन्नरों को देखा गया है लेकिन इस उपन्यास में किन्नर की दृष्टि से दुनिया देखी गई है। कोई इंसान अगर एक खास रिश्ता नहीं बना पाता है तो उसे सारे रिश्तों से बेदखल कर दिया जाता है। यह उपन्यास और उसका अंत बताता है कि मुख्यधारा का समाज कितना क्रूर है।सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज ने कहा कि इस उपन्यास को जितनी लोकप्रियता मिली है वह एक बदलते मिजाज वाले समाज का सूचक है।

