अंग्रेजी के स्थान पर स्वभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ में कहा गया है कि हिंदी देश को एकजुट करने में और उस अंग्रेजी को ‘हटाने’ में सक्षम है जिसने भारत को इतने वर्षो तक ‘‘दासता’’ में रखा। उसमें कहा गया है कि हिन्दी को मजबूत बनाने की जरूरत है क्योंकि हिन्दी को मजबूत करना देश को मजबूत करना है।

‘पांचजन्य’ के संपादकीय में स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत की स्वभाषा के स्थान पर अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा गया है कि संविधान निर्माता अंग्रेजी को ज्यादा बढ़ावा और छूट देने के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि 15 वर्ष के संक्रमणकाल के बाद साल 1965 तक भारत अंग्रेजी भाषा का जुआ उतारकर स्वभाषा पर आ जाए ,लेकिन संविधान निर्माताओं की इच्छा का पालन करने में पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं दिखाई गई।

इसमें कहा गया है कि भारतीय भाषाओं को हिन्दी के विरोध में लामबंद करने के राजनीतिक षड्यंत्र किये गए।
संपादकीय में कहा गया है कि हिन्दी को मजबूत करना देश को मजबूत करना है। उसे नीति निर्धारण में सम्मानजनक स्थान दिलाना ,देश के उन विभिन्न भाषा भाषी समूहों में आत्मविश्वास भरना है जो अंग्रेजी के सामने लड़खड़ाते हैं और हिन्दी की छांव में राहत पाते हैं।

पांचजन्य में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के कामकाज में, नौकरशाही की टिप्पणियों में, हर नीतिगत विमर्श के संचालन सूत्र में, अंग्रेजी की घुसपैठ हर जगह गहरी है, जो घातक है। इसमें कहा गया है,‘‘हिंदी ऐसी भाषा है जिसमें अंग्रेजी को देश से हटा देने का माद्दा है। यह भाषा अपनी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के साथ फल फूल सकती है।’’उसमें कहा गया है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक दर्जा दिलाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

कांग्रेस का नाम लिये बिना संपादकीय में कहा गया है कि महात्मा गांधी ने जिस भाषा के जरिये देश को जगाया, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह के ओजस्वी आह्वानों का जो आधार बनी, उस हिन्दी के प्रति सत्ता के केंद्र निष्ठावान नहीं रहे।

संघ के मुखपत्र में कहा गया है,‘‘अंग्रेजी हमारी प्राथमिकता वाली भाषा नहीं है। इसे ब्रिटिश शासकों ने हम पर थोपा था। हमने हालांकि आजादी हासिल कर ली लेकिन हम अभी भी अंग्रेजी के गुलाम हैं।’’
‘‘भारत आज भी पूर्ण आजादी के लिए संघर्ष करता दिख रहा है। यहां जारी ‘इंडिया बनाम भारत’ बहस का महत्वपूर्ण पक्ष दरअसल ‘अंग्रेजी बनाम हिंदी ’की बहस ही है।’’

संपादकीय में कहा गया है कि ‘‘एक तरफ जहां हिंदी के पास ‘जनाधार’ है वहीं अंग्रेजी के पास ‘बाजार’ और ‘दरबार’ (अदालतें) हैं। अगर हिंदी को आगे बढ़ाना है और इसे भारत के आत्मसम्मान, प्रगति और गौरव का हिस्सा बनाना है तो इसे मजबूत करना ही होगा।’’

इसमें कहा गया है कि अंग्रेजी भारतीय व्यवस्था की ब्रिटिशकालीन मांदों में छिपी है। देश स्वतंत्र हुआ लेकिन व्यवस्था के अंग्रेजी उपासक हिन्दी जनाधार का दोहन करते रहे। इसमें कहा गया है कि भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाकर राष्ट्रभाषा के स्थान पर खालीपन पैदा करना ही इसके विरोध की मंशा है।

संपादकीय कहता है,‘‘हिन्दी भला तमिल, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला की विरोधी कैसे हो सकती है? गंगा भला कावेरी, गोदावरी, नर्मदा, तीस्ता की विरोधी कैसे हो सकती है? गुजराती, बंगाली, मराठी बोलियों के अलग और अनूठे शब्द अपनी झोली में भरती हिन्दी के लिए यही उसकी ताकत है।

पांचजन्य में कहा गया है कि भारत को एक सूत्र में बांधने की हिन्दी की ताकत उन लोगों को डराती है जो आज भी राष्ट्र की व्यवस्थाओं को परतंत्रता की अंग्रेजी जंजीर में बांधे रखना चाहते हैं। विदेशी कंपनियों के उत्पादों को हिन्दी के कंधे पर चढे बिना बाजार नहीं मिलता है। जरा सहारा मिलने पर हिन्दी राष्ट्र की सामूहिक चेतना का चमत्कारिक सूत्र साबित हो सकती है।