अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर यह साल देश के लिए निराशाजनक ही माना जाएगा। इसकी दशा को मापने के मोटे तौर पर तीन मापदंड माने जाते हैं। पहला-रोजगार सृजन, दूसरा कर्ज वितरण और तीसरा निवेश। निवेश दोनों तरह का-घरेलू भी और विदेशी भी। इसी तरह रोजगार भी दोनों तरह का-नौकरी और स्वरोजगार। तीनों ही मोर्चों पर 2016 की 2015 से तुलना करें तो तस्वीर निराशाजनक है।

वादा तेरा वादा

बहरहाल इस साल की खास आर्थिक गतिविधियों पर नजर डालें तो सुधारों के नजरिए से जीएसटी कानून का संसद द्वारा आम राय से पारित हो जाना सरकार के लिए गर्व करने की बात कही जा सकती है। इस साल भारतीय रिजर्व बैंक को भी उर्जित पटेल के रूप में नए गवर्नर मिले। उनके गवर्नर बनने पर भी नुक्ताचीनी हुई और उन्हें अंबानी का आदमी बता पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को एक मौका और नहीं दिए जाने के लिए मोदी सरकार विरोधियों के निशाने पर रही। प्रधानमंत्री के लोकसभा चुनाव से पूर्व किए गए वादों को याद करें तो यह साल कुछ ज्यादा ही हताश करता है। मोदी ने कहा था कि वे सत्ता में आए तो हर साल देश में रोजगार के दो करोड़ नए अवसर पैदा करेंगे। मोटे अनुमान से माना जाता है कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हर साल डेढ़ करोड़ लोग रोजगार तलाशने की लाइन में आ जाते हैं। दो करोड़ तो दूर डेढ़ करोड़ के आंकड़े को भी हमारा देश इस साल छू नहीं पाया।
रियल एस्टेट सेक्टर रोजगार सृजन का बड़ा स्रोत रहा है। जिसकी खराब हालत तो पिछले साल ही हो गई थी पर इस साल तो उसका भट्ठा ही बैठ गया।

स्वरोजगार का सपना भी चूर-चूर

कहने को तो प्रधानमंत्री ने अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कार्यक्रमों और योजनाओं की झड़ी लगा दी। स्वच्छ भारत के बाद मेक इन इंडिया का जोर-शोर से प्रचार प्रसार किया। दुनिया के तमाम देशों का दौरा कर उन्हें भारत में आने और यहां निवेश करने के निमंत्रण भी दिए। पर एफडीआई लाने का उनका मिशन परवान नहीं चढ़ पाया। लिहाजा, उन्होंने डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और अमृत व मुद्रा जैसी योजनाएं भी लागू कीं। पर अर्थव्यवस्था में छाई मंदी को कोई भी उपक्रम गतिशील नहीं बना पाया। स्वरोजगार का उनका सपना भी इस साल चूर-चूर हो गया। यशवंत सिन्हा ने सरकार को अपने तरीके से आईना भी दिखाने की कोशिश की है। वे मानते हैं कि लच्छेदार बातें सुनने में भले अच्छी लगें पर आम आदमी नतीजे चाहता है।

नए साल से उम्मीदें तो बहुत हैं पर अभी तक तो सरकार जीएसटी लागू करने की तारीख बताने की हालत मे भी नहीं है। पहले कहा गया था कि सारे देश में एक जैसी ऐतिहासिक कर प्रणाली 1 अपै्रल 2017 से लागू हो जाएगी। पर अब इसे 1 सितंबर 2017 से लागू करने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि संघीय ढांचे वाले विशाल देश में यह नई कर व्यवस्था कोई चमत्कार दिखा पाएगी, अभी से कह पाना आसान नहीं है। इसी तरह के सपने वैट लागू करते समय भी दिखाए गए थे। जो मृग मरीचिका ही साबित हुए।

मानसून की संतोषजनक स्थिति और वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो जाने के कारण सरकारी अमले की बढ़ी आय के बावजूद आर्थिक विकास दर का सरकार ने लक्ष्य खुद ही घटाकर साल के शुरू में 7.6 फीसद बताया था। पर साल बीतने से पहले ही इसे घटाकर सात फीसद कर दिया। नोटबंदी के कारण बाजारों पर दिख रहे असर के मद्देनजर तो सात फीसद का अनुमान भी खरा उतरता नजर नहीं आ रहा। इस पर अगर पूर्व प्रधानमंत्री और नामचीन अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के आकलन को गंभीरता से लें तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में नोटबंदी के कारण दो फीसद तक की कमी आएगी।

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अर्थव्यवस्था को नकारात्मक दिशा में जाना बताया है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के मुताबिक अगर भारत वतर्मान में दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित अर्थव्यवस्था होते हुए भी जरूरत के हिसाब से रोजगार देने में सक्षम नहीं है तो फिर उसका क्या फायदा?

(अनिल बंसल)