मुस्लिम एजुकेशनल सोसाइटी (एमईएस) ने 17 अप्रैल को अपने कॉलेजों के प्रबंधन को निर्देश देकर लड़कियों के ऐसे कपड़े पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया जो चेहरे को ढंक लेते हैं। करीब 150 संस्थाओं वाले इस समूह ने बुर्के पर प्रतिबंध के अपने फैसले के संदर्भ में केरल हाईकोर्ट के एक आदेश का भी जिक्र किया है। यह सोसाइटी अपने तरह के सबसे बड़े समूहों में से एक है। बता दें कि कोर्ट के इस आदेश के पीछे उन दो लड़कियों का मामला है जो ड्रेस कोड पर पिता के विरोध के चलते एक साल से स्कूल ही नहीं गईं। तिरुवनंतपुरम के पास थिरुवल्लम स्थित क्रिस्ट नगर सीनियर सेकेंडरी स्कूल ने शैक्षणिक सत्र 2018-19 की शुरुआत में दो नाबालिग लड़कियों को लंबी आस्तीन वाले कपड़े पहनने से मना किया था। इसके बाद उनके को पिता मोहम्मद सुनीर मामले को कोर्ट में ले गए। सुनीर ने कोर्ट से कहा कि छोटी आस्तीन को गैर-इस्लामिक माना जाता है।

दिसंबर 2018 में एकल पीठ के आदेश में न्यायमूर्ति मोहम्मद मुश्ताक ने कहा था कि कोई भी अपने व्यक्तिगत अधिकारों को संस्था के व्यापक हित पर तरजीह नहीं दे सकता और ड्रेस कोड का फैसला करना संस्थान के अधिकारों के दायरे में आता है।

गौरतलब है कि सुनीर ने सातवीं और तीसरी कक्षा में पढ़ रहीं दो बेटियों को पूरे शैक्षणिक सत्र में स्कूल नहीं भेजा। सुनीर ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की थी। 40 वर्षीय सुनीर कहते हैं कि वे इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक लेकर जाएंगे। उनकी एक छोटी बेटी और उसी स्कूल में पढ़ती है। उसकी क्लास में बच्चे यूनिफॉर्म के रूप में फ्रॉक और शर्ट पहनते हैं जबकि बड़ी लड़कियों को शर्ट-स्कर्ट और लड़कों को ट्राउजर-शर्ट पहनना होता है।

पेशे से व्यापारी सुनीर कहते हैं, ‘हाईकोर्ट का यह आदेश बच्चों के शरीर को ढंकने वाले व्यवस्थित कपड़े पहनने के अधिकार का हनन है। क्यों एक छात्र स्कूल में खुद को ठीक से ढंककर नहीं जा सकता? जब कोई व्यक्ति चाहता है तो क्या कोई उसे मना कर सकता है? मैं संविधान में एक आम आदमी को दिए गए अधिकारों के लिए लड़ रहा हूं। मैं छात्रों का मुंह ढंकने की मांग नहीं कर रहा, सिर्फ पूरी आस्तीन के लिए मांग कर रहा हूं।’

National Hindi News, 05 May 2019 LIVE Updates: दिनभर की अहम खबरों के लिए क्लिक करें

क्रिस्ट नगर सीनियर सेकेंडरी स्कूल कैथोलिक संस्था मैरी इमाक्युलेट द्वारा संचालित है। इसमें पढ़ने वाले पांच हजार बच्चों में से करीब 800 मुस्लिम हैं। स्कूल के प्रिंसिपल फादर मैथ्यू चक्कलक्कल कहते हैं, ‘2017-18 में दो छात्राएं लंबी आस्तीन के कपड़े पहनकर आईं, हमने उन्हें पूरी आस्तीन के कपड़े भी पहनने दिए लेकिन अगले सत्र (2018-19) में हमने अपने ड्रेस कोड को फॉलो करने का निर्देश दिया। लेकिन उन छात्राओं के पैरेंट्स इसके लिए तैयार नहीं हैं और उन्होंने पिछले शैक्षणिक सत्र में छात्राओं को स्कूल नहीं भेजा।’

प्रिंसिपल ने आस्तीन को लेकर स्कूल की नीतियों में किसी बदलाव की बात से इनकार करते हुए कहा कि यह नीति 20 साल से नहीं बदली है। उन्होंने कहा, ‘किसी के पैरेंट्स ने राज्य की सबसे उच्च संस्था से शिकायत की है लेकिन सभी हमारे साथ खड़े हैं। हम शैक्षणिक संस्थाओं को धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं चला सकते।’

स्कूल के पैरेंट्स टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष केएस रेंजुलाल कहते हैं, ‘उन्होंने सुनीर का नजरिया बदलने की कोशिश की लेकिन वो अपनी बात पर अड़े हुए हैं। एक या दो छात्रों को स्कूल के ड्रेस कोड का नियम तोड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती।’ एसोसिशन के सदस्य एडवोकेट हाशिर लब्बा कहते हैं कि बच्चों को इस आधार पर अच्छी शिक्षा से वंचित करना सुनीर की गलती है। वे कहते हैं, ‘यदि मुस्लिम लड़कियों के लिए पूरी आस्तीन वाले कपड़ों की अनुमति दी जाएगी तो कल से कोई और धोती पहनकर और तिलक लगाकर आने की भी मांग करेगा।’

अपने आदेश में जस्टिस मुश्ताक ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के तहत धर्म का अभिन्न हिस्सा होने पर उसके हिसाब से कपड़े पहनने का अधिकार है। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी भी संस्थान को संचालित करने वालों के पास प्रबंधन और प्रशासन का अधिकार भी संविधान में दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत वाजिब दायरे में ऐसा करने की अनुमति दी गई है।

कोर्ट ने कहा, ‘दोनों अधिकारों के टकराव की स्थिति में कोर्ट ने संतुलन के बजाय प्रमुख हितों को बनाए रखा। यदि प्रमुख हितों को तवज्जो नहीं दी गई तो अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। इस मामले में मैनेजमेंट के हित प्रमुख हैं। अगर मैनेजमेंट को संस्थान चलाने के मामले में आजादी नहीं दी गई तो यह उनके मूल अधिकारों का हनन होगा।

 

सुनीर मानते हैं कि उनकी बेटियों ने धार्मिक शिक्षा तो घर पर हासिल कर ली, लेकिन उन्होंने स्कूल और सहपाठियों को खो दिया। सुनीर कहते हैं कि वो उसी स्कूल में जाना चाहती हैं लेकिन मैं उन्हें पूरी आस्तीन के साथ ही भेजना चाहता हूं।