कथक नृत्यांगना रचना यादव ने अपने करियर का एक लंबा सफर तय किया है। कथक नृत्यांगना अदिति मंगलदास की नृत्य रचना देखकर वे काफी प्रभावित हुई थीं। कमानी सभागार में पहली बार मंगलदास के नृत्य को देखकर उन्होंने तय कर लिया था कि इन्हीं गुरु से नृत्य सीखना है। फिर, उन्होंने सीखने की शुरुआत की। एक अप्रैल को वह उसी शाम की याद दिला रहा था, जब रचना और उनके साथी कलाकारों ने नृत्य रचना ‘त्रिशंकु’ पेश की। किसी भी कलाकार को कब, कहां, किससे प्रेरणा मिल जाए पता नहीं। यही तो रचनात्मकता है।
रचना यादव ने नृत्य रचना ‘त्रिशंकु’ की प्रेरणा अपनी मां और लेखिका मन्नू भंडारी की रचना से ली। वे कहती हैं कि यह मेरे जीवन का अनुभव है। यह बतौर मां की एक बेटी के रूप में और फिर अपनी बेटियों की मां के रूप में है। इस यात्रा में एक तरह के संघर्ष और अंतर्विरोध को मैंने महसूस किया है। दरअसल, नृत्य परिकल्पना में रचना यादव ने एक स्त्री की जीवन यात्रा के साथ परंपरा को जोड़ा। उन्होंने उसकी पीड़ा, वेदना और त्रासदी की अंतहीन कथा को बहुत संक्षिप्त और सार रूप में पेश किया। घंटे भर की प्रस्तुति सारगर्भित और मर्मस्पर्शी थी। संगीत, वस्त्र विन्यास, प्रकाश प्रभाव हर दृष्टि से मनोहारी प्रस्तुति थी। पंडित रमाकांत गुंदेचा व पंडित उमाकांत गुंदेचा के अनुपम ध्रुपद संगीत से पेशकश मोहक बन पड़ी। उनके शिष्यों संजीव व मनीष ने सुरीले अंदाज में गाया। वहीं गायक समीउल्लाह खां ने मधुर संगीत से प्रस्तुति को और प्रभावकारी बना दिया।
यह रचना यादव कथक स्टूडियो और हंसाक्षर ट्रस्ट का संयुक्त आयोजन था। प्रस्तुति का आरंभ ध्रुपद के आलाप से हुआ। मद्धिम प्रकाश में संगीत विलंबित लय के साथ तारतम्य बनाते हुए कलाकारों ने बेहद ठहरा हुआ हस्त व अंग संचालन पेश किया। उन्होंने सामूहिक रूप से पखावज के ताल आवर्तन पर कुछ चलन, टुकड़े, तिहाइयों को नृत्य में पिरोया।
अगले अंश में नृत्यांगना रचना यादव ने अभिनय के जरिए नृत्य को एक पराकाष्ठा प्रदान की। यह संवाद सीमाएं, जहां हमें सुरक्षा देती हैं, ‘गजगामिनी मनमोहिनी झिझकत-झिझकत’ और ठुमरी ‘अलबेली नार इतराती बलखाती’ के जरिए पिरोया गया था। उन्होंने नायिका के एक-एक भाव को बहुत बारीकियों के साथ उभारा। एक ओर सोलह श्रृंगार को हस्तकों और मुद्राओं से दर्शाया, दूसरी ओर थाट, नजर व फूल की गत के साथ दमदार उठान से अपनी प्रस्तुति को जानदार बना दिया। उन्होंने अपने नृत्य में संवाद के अंश ‘सांझ सुहाई सिंदूरी छाई’ को कई अंदाज में पेश किया।
प्रस्तुति के अगले चरण में तराना और संवाद के अंश, ‘पर वे हवा के झोंके कब तूफान बन गए’ पर सामूहिक पेशकश थी। इसमें नायक-नायिका के भावों के साथ पैर का जानदार काम पेश किया गया। कलाकारों ने ‘धा-धिंना-ना-तिन-तिन-तिंना’ के बोल पर लयकारी, जुगलबंदी और सवाल-जवाब के जरिए ‘तूफान’ शब्द को रूपायित किया। यह नृत्यांगना और नृत्य निर्देशिका रचना यादव की सूझबूझ को इंगित कर रहा था। पतंग व पक्षी के गतियों को प्रतीक स्वरूप पेश करते हुए, उन्होंने जीवन की अनंत गति को निरूपित किया। यहां संवाद ‘इस गति को कैसे रोकूं’ बहुत मार्मिक जान पड़ा। वहीं अंतिम संवाद ‘मैं ही परंपरा बन गई’ ने स्त्री की गहन पीड़ा को पराकाष्ठा प्रदान की। इस संवाद ने कई प्रश्न को छोड़ते हुए दर्शकों को सोचने को विवश किया कि हर जीवन पूर्णता की तलाश में है।
रचना यादव के साथ नृत्य करने वाले कलाकार थे-श्वेता मिश्र, मीनू गारू, आशीष कथक, रोहित पवार, वैदेही ओबेराय, निदिशा वार्ष्णेय व रिचा श्रीवास्तव। संगत कलाकारों में शामिल थे-तबले पर योगेश गंगानी, पखावज पर महावीर गंगानी, सितार पर उमाशंकर, सारंगी पर कमाल अहमद, बांसुरी पर किरण कुमार, मृदंगम व घटम पर केशवन, गिटार पर अदनान व फरहान और वाद्य प्रभाव गगन सिंह।

