मुंबई में माफियागिरी की शुरुआत करीम लाला ने शुरू की थी। 60 के दशक में पठान गैंग मुंबई पर सक्रिय हुआ और फिर दाऊद इब्राहिम के मेन फ्रेम में आने तक मुंबई पर पठानों का राज रहा। दाऊद ने कभी अपने आका रहे करीम लाला के साम्राज्य को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। यूपी की बात की जाए तो यहां माफियागिरी की शुरुआत हरिशंकर तिवारी के हाथों हुई मानी जाती है। माफियाओं के बीच उन्हें बाबा का तमगा हासिल था। कोई भी बाहुबली हो लेकिन हरिशंकर तिवारी से भिड़ने की कोई जुर्रत नहीं करता था। माफिया जगत में वो हर किसी के लिए सम्मानीय थे। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब करीम लाला की तरह उनके एक चेले ने चुनौती दी। तिवारी को अपनी जान बचाने के लिए तमाम मशक्कतें करनी पड़ीं।
गोरखपुर विवि का छात्र राजनीति से ऊभरे थे हरिशंकर तिवारी
जेपी आंदोलन के समय में गोरखपुर विवि में एक नाम तेजी से उभरा। वो था हरिशंकर तिवारी का। तिवारी ने छात्र राजनीति पर अपनी बेहद तीखी पकड़ बनाई। वो बाहुबली थे, लिहाजा उनके इर्द गिर्द की टीम लगातार बड़ी होती चली गई। उस दौर में हरिशंकर तिवारी को विशुद्ध रूप से सिर्फ बाहुबली के रूप में शुमार किया जाता था। वो ब्राह्मणों के सरमाएदार था। उनकी अदावत हुई ठाकुरों को नेता वीरेंद्र प्रताप शाही से। दोनों के बीच किस कदर की अदावत थी कि 80 के दशक में गोरखपुर में गोलियों की तड़तड़ाहट आम हो चली थी। शाही से तिवारी की कई बार खूनी जंग हुई। दोनों तरफ की कई लाशें भी गिरीं। इस अदावत का अंत तब हुआ जब वीरेंद्र प्रताप शाही की हत्या कर दी गई। उसके बाद से दोनों गुटों में जंग खत्म हुई।
वीरेंद्र शाही से होती रही खूनी जंग, कई बार गोलियों से गूंजा गोरखपुर
हालांकि शाही से जंग के बीच में तिवारी को खुद को बनाए रखने का नुस्खा समझ में आ गया। उनको पता था कि माफिया के तौर पर वो लंबी पारी तभी खेल सकते हैं जब उनका राजनीति में दखल हो। तिवारी ने किसी राजनेता को अपना गॉडफादर बनाने की जगह खुद ही उस जगह पर जाने की ठानी। वो 1985 में गोरखपुर की चिल्लूपार असेंबली सीट से खड़े हुए। खास बात थी कि जब चुनाव हुआ तब तिवारी जेल की सींखचों के पीछे थे। हिंदुस्तान की राजनीति में ये भी एक रिकार्ड है कि तिवारी ही वो पहले नेता थे जो जेल के भीतर रहकर चुनाव जीते। उसके बाद तो कई ऐसे मामले आए गए।
चिल्लूपार से खड़े हुए तिवारी, जेल से जीते और फिर 22 सालों तक जीतते रहे
तिवारी ने चिल्लूपार सीट से लगातार 22 साल तक अपना परचम लहराया। वो किसी न किसी पार्टी से टिकट का जुगाड़ कर ही लेते थे। पहले चुनाव जीतते और फिर मंत्री बन जाते। कहने को तो वो राजनेता बन गए थे। लेकिन माफिया में उनका दखल बदस्तूर जारी था। यूपी हो या बिहार, कहते हैं कि उनकी जानकारी के बगैर कहीं पर भी कुछ बड़ा नहीं हो पाता था। तिवारी ने अपने आगे भी एक टीम खड़ी की जो उनके इशारे पर काम करती थी।
शिवप्रकाश शुक्ला ने तेजी से माफिया जगत में बनाई अपनी जगह
इसी कड़ी में एक नाम तेजी से उभर कर सामने आया। तिवारी ने हत्या के एक मामले में नामजद श्रीप्रकाश शुक्ला को पुलिस के चंगुल से बचाया था। वो भी ब्राह्मण था। लिहाजा तिवारी को उसमें काफी संभावनाएं दिखीं। श्रीप्रकाश शुक्ला होनहार छात्र था। लेकिन लाइन से एक बार भटका तो भटकता ही चला गया। एक बार पुलिस के रिकार्ड में नाम आने के बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बताते हैं कि तिवारी के कहने पर उसने कई जरायम किए। हरिशंकर तिवारी को वो अपना सब कुछ मानता था। उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार था।
पहले वीरेंद्र शाही को ठिकाने लगाया तो फिर बिहार के मंत्री को मारा
जरायम की दुनिया में श्रीप्रकाश का नाम तेजी से आगे बढ़ा था। कहते हैं कि 1997 में उसने तिवारी के कहने पर ही उसने उनके कट्टर दुश्मन वीरेंद्र शाही को सरेआम मार गिराया। उसने शाही को लखनऊ में AK 47 से 100 से ज्यादा गोलियां मारी थीं। श्रीप्रकाश बेलगाम हो गया था। मोकामा के सूरजभान के कहने पर उसने बिहार में जाकर एक मंत्री बृज बिहारी प्रसाद को 1998 में सरेआम मौत के घाट उतार दिया। कहते हैं कि मंत्री को मारने का जिम्मा दूसरे शूटरों को भी दिया गया था लेकिन वो नाकाम रहे। उसने मंत्री की सुरक्षा को धता बताकर सरकारी अस्पताल में सरेआम उनको गोलियों से भून दिया। उस हत्याकांड के बाद श्रीप्रकाश के नाम का सिक्का दौड़ा। इतना कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सीएम कल्याण सिंह तक की सुपारी उसने ले ली थी। इसी बीच उसकी तिवारी से अनबन हो गई। खटास इतनी ज्यादा बढ़ी कि श्रीप्रकाश के निशाने पर तिवारी ही आ गए।
शिवप्रकाश शुक्ला से भय खाने लगे थे हरिशंकर तिवारी, मरने के बाद ही संभल सके
कहते हैं कि तिवारी के मन में श्रीप्रकाश का भय समा गया था। इतना ज्यादा कि वो श्रीप्रकाश के किसी रिश्तेदार को अपने आसपास रखने लगे। उन्हें यकीन था कि अपने सगे संबंधी को देखकर श्रीप्रकाश उन पर गोली नहीं चलाएगा। शुक्ला का ट्रैक रिकार्ड भी ऐसा हो गया था कि तिवारी को हर पल भय सताने लगा। वो अंडरग्राउंड हो गए। वो सीन में तभी आए जब 22 सितम्बर 1998 को लगभग 25 वर्ष की आयु में गाजियाबाद में श्रीप्रकाश शुक्ला को यूपी की एसटीएफ ने पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। शिवप्रकाश के मारे जाने के बाद ही तिवारी की जान में जान आई। एक बार तो वो लगभग मान बैठे थे कि जैसे करीम लाला को उनके शागिर्द दाऊद ने ठिकाने लगाया कहीं वैसे ही श्रीप्रकाश उनका भी खात्मा न कर दे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।