उत्तराखंड के हल्द्वानी में 50,000 से अधिक लोग अतिक्रमण के आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय इन दिनों उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 2022 के बेदखली आदेश के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका पर पिछली सुनवाई 14 नवंबर 2025 को हुई थी और अगली सुनवाई 16 दिसंबर को होने की संभावना है।

ऐसे ही हल्द्वानी में गफूर बस्ती की एक संकरी गली में बैठे मोहम्मद अमन अंसारी भी भूमि अतिक्रमण मामले की सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई के बारे में खबर का इंतजार कर रहे हैं , जिस पर आंगनवाड़ी का भविष्य टिका हुआ है। 29 वर्षीय युवक ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि काफी लंबा इंतजार रहा है। गफूर बस्ती की 65 वर्षीय जुबैदा कहती हैं, “हमारे गले पर तलवार लटकी हुई है। वे हमें जाने के लिए कहेंगे तो हम चले जाएंगे, सरकार से कौन लड़ सकता है? लेकिन, मुझे विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट हमें बेदखल करने का आदेश नहीं देगा।”

राज्य सरकार और रेलवे के बीच लंबे समय से चल रहा कानूनी विवाद

4,365 ढांचे राज्य सरकार और भारतीय रेलवे के बीच चल रहे एक लंबे कानूनी विवाद में फंसे हुए हैं। गौला नदी के पास 2.2 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले ये ढांचे हल्द्वानी के चार इलाकों – इंदिरा कॉलोनी, ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती और लेन 7 – में स्थित हैं। सरकार द्वारा इन्हें अनाधिकृत बताते हुए इन्हें ध्वस्त करने की योजना है। इन इलाकों के 50,000 निवासी कहते हैं कि उनके पास वैध कब्जे को साबित करने वाले दस्तावेज हैं।

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ध्वस्त किए जाने वाले 4,365 ढांचों में न केवल झुग्गियां बल्कि इमारतें भी शामिल हैं जिनमें स्कूल, सरकारी अंतर-विद्यालय, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उत्तराखंड जल संस्थान का कार्यालय और धार्मिक स्थल (जिनमें से कुछ 1930 के दशक के हैं) हैं। मोहम्मद यूसुफ जो कई निवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील हैं, उनके अनुसार इनमें विभाजन के बाद शत्रु संपत्ति घोषित करके नीलाम की गई और बाद में वर्तमान निवासियों द्वारा खरीदी गई इमारतें भी शामिल हैं।

रेलवे कर रहा यह दावा

वकील के मुताबिक़, कुछ निवासियों के पास 1968 से पट्टे के दस्तावेज हैं। इनमें से कुछ की अवधि समाप्त हो चुकी है जबकि कुछ को सरकारी स्थानीय निकाय की मंजूरी से फ्रीहोल्ड संपत्ति में परिवर्तित कर दिया गया है। निवासी वैध कब्जे का दावा करने के लिए बिक्री और पट्टे के दस्तावेजों का हवाला देते हैं, रेलवे का दावा है कि उसके पास यह दिखाने के लिए कि वह 30 हेक्टेयर भूमि का मालिक है जिस पर ये संरचनाएं खड़ी हैं अपने सबूत हैं। इनमें नक्शे, 1959 की अधिसूचना, 1971 के राजस्व रिकॉर्ड और 2017 का सर्वे शामिल है।

अतिक्रमण के आरोप सबसे पहले 2007 में उच्च न्यायालय तक पहुंचे जब पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के एक वकील ने इलाहाबाद से काठगोदाम तक ट्रेन चलाने की मांग की। यूसुफ ने बताया, “हाई कोर्ट ने रेलवे को नोटिस जारी किया जिसने दावा किया कि तथाकथित अतिक्रमणों के परिणामस्वरूप उसके पास नई लाइन बिछाने के लिए जगह नहीं है।”

सुप्रीम कोर्ट में चल रहा अतिक्रमण का मामला

गौला नदी पर बने पुल के ढहने के मामले में 2013 में एक जनहित याचिका के माध्यम से यह मुद्दा फिर से सामने आया। बाद में अदालत द्वारा अनिवार्य जांच में अवैध खनन का आरोप लगाया गया, और रेलवे ने इसे अतिक्रमण से जोड़ा।

रेलवे और जिला प्रशासन द्वारा 2016-17 में किए गए एक संयुक्त सर्वेक्षण में 4365 अतिक्रमणों की पहचान की गई। 10 जनवरी, 2017 को उच्च न्यायालय ने अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया जिसके बाद बेदखली के नोटिस जारी किए गए। सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में बेदखली पर रोक लगा दी और उच्च न्यायालय से प्रभावित व्यक्तियों की बात सुनने का अनुरोध किया। इसके बाद उच्च न्यायालय ने रेलवे को एक एस्टेट ऑफिसर नियुक्त करने, नोटिस जारी करने और आपत्तियों पर सुनवाई करने का निर्देश दिया।

एस्टेट ऑफिसर ने आपत्तियों को खारिज कर दिया और रेलवे के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसके चलते निवासियों ने जिला अदालत में अपील की, जहां कुछ अपीलें अभी भी लंबित हैं। जुलाई 2024 में, केंद्र और रेलवे के आवेदन पर कार्रवाई करते हुए, अदालत ने अधिकारियों को आवश्यक भूमि की पहचान करने, प्रभावित परिवारों की सूची बनाने और पुनर्वास योजना तैयार करने का निर्देश दिया। याचिकाकर्ताओं के वकील का कहना है कि तब से इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।

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