वाराणसी की एक जिला अदालत ने गुरुवार (22 सितंबर) को ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में मौजूद संरचना की कार्बन डेटिंग की मांग वाली याचिका को स्वीकार कर लिया है। याचिका हिंदू पक्ष की तरफ से दायर की गई थी, जिनके मुताबिक मस्जिद परिसर में मौजूद संरचना शिवलिंग है।
ज्ञानवापी मामले में याचिकाकर्ता कार्बन डेटिंग की तकनीक से कथित शिवलिंग की उम्र जानना चाहते हैं, ताकि यह स्थापित हो सके कि ‘शिवलिंग’ मस्जिद के अस्तित्व में आने के बहुत पहले से अपनी जगह पर मौजूद था। कोर्ट ने नोटिस जारी कर कार्बन डेटिंग को लेकर अन्य पक्षों की राय जाननी चाही है। याचिका पर सुनवाई 29 सितंबर 2022 को होनी है।
कब हुई कार्बन डेटिंग तकनीक की खोज?
कार्बन डेटिंग एक व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला तकनीक है, जिसका उपयोग कार्बनिक पदार्थों की आयु को पता लगाने के लिए किया जाता है। इस तकनीक की खोज साल 1949 में शिकागो यूनिवर्सिटी के विलियर्ड लिबी ने की थी। इसकी मदद से सबसे पहले एक प्राचीन लकड़ी की उम्र का पता लगाया गया था। विलियर्ड लिबी को इस खोज के लिए साल 1960 में केमिस्ट्री के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
किन चीजों पर काम करता है कार्बन डेटिंग?
कार्बन डेटिंग सभी प्रकार के कार्बनिक पदार्थों पर काम करता है। इस तकनीक से लकड़ी, हड्डी, बाल, चमड़ा, चारकोल, चित्रकारी, कीड़ा और फल आदि की उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। कार्बन डेटिंग से प्राप्त उम्र अनुमानित होती है। सटीकता को लेकर आज भी विवाद है। अगर पत्थर और धातु पर कोई कार्बनिक पदार्थ नहीं मिलता, तो कार्बन डेटिंग से उनकी उम्र का पता नहीं लगाया जा सकता है।
किसी विशेष स्थान पर एक चट्टान कितने समय से है, इसका पता तभी लगाया जा सकता है यदि चट्टान के नीचे कार्बनिक पदार्थ, जैसे- मृत पौधे या कीड़े फंसे मिले। इससे संकेत मिल सकता है कि वह चट्टान उस स्थान पर कब से है। कार्बन डेटिंग के माध्यम से 40,000-50,000 वर्ष से अधिक की आयु का पता नहीं लगाया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तब तक कार्बन-14 की मात्रा लगभग नगण्य हो जाती है।