राजनीति की दुनिया में रिश्तों की समझ कुछ अलग होती है। यहां दोस्ती और दुश्मनी की परिभाषा वक्त के साथ बदलती रहती है। सत्ता के रास्ते पर जहां नए दोस्त बनते हैं तो एक मुकाम पर दोस्ती टूटने में समय भी नहीं लगता है। हमारे देश की राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जब पुराने दोस्त एक दूसरे के खिलाफ हो गए। ऐसे ही कुछ किस्सों को यहां हम एक साथ बता रहे हैं, जिन्हें अलग-अलग किताबों से लिया गया है।

वीपी सिंह ने उठा लिया था राजीव गांधी के खिलाफ विद्रोह का झंडा: विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस पार्टी की तरफ से 1980 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। 1984 में राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने जब सफलता के झंडे लहराए तो वह केंद्रीय मंत्री बने। लेकिन यहां से राजीव गांधी और वीपी सिंह के रिश्तों में खटास आने लगी। वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय अपनी किताब “वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं” में बताते हैं कि 1987 में वीपी सिंह को राजीव गांधी मंत्रिमंडल से निकाले जाने के बाद वह राजीव के कट्टर आलोचक हो गए थे।

दोनों के बीच तकरार इस कदर बढ़ गई थी कि एक जनरैली में राजीव गांधी ने इशारों ही इशारों में वीपी सिंह की तुलना जयचंद और मीर जाफर से कर दी थी। जो वीपी सिंह कभी सरकार में रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे थे वही सिंह, राजीव गांधी के कट्टर आलोचक बनकर उभरे थे।

एक कार्यक्रम से लौटते हुए राजीव गांधी और वीपी सिंह के बीच उनकी लोकप्रियता को लेकर तनातनी हो गई। गुस्सें में राजीव गांधी ने सिंह से कह दिया कि ऐसा चलता रहा तो तीन महीने भी नहीं चल पाएगा। उन दिनों प्रणब मुखर्जी कांग्रेस छोड़कर गए थे और तीन महीनों के बाद वापस आ गए थे। इसके जवाब में वीपी सिंह ने कहा था कि अगर इस तरह तीन महीने भी चल गया तो चला लूंगा।

करुणानिधि और एमजीआर की दुश्मनी: तमिलनाडु की राजनीति में करुणानिधि और एमजीआर की दोस्ती की मिसाल दी जाती थी लेकिन वक्त के साथ दोनों दुश्मन हो गए। लेखक आर कानन ने करुणानिधि और एमजीआर की दोस्ती और दुश्मनी पर आधारित किताब लिखी थी, जिस पर 1997 में मणिरत्नम ने फिल्म इरुवर बनाई थी। इस किताब में कानन ने बताया है कि केंद्र सरकार चाहती थी कि 1971 में जबरदस्त प्रदर्शन करने वाली डीएमके को तोड़ दिया जाए। जिससे वह केंद्र सरकार के हाथों का खिलौना बन गए।

कानन कहते हैं कि दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे लेकिन अपने अंतिम कार्यकाल में एमजीआर ने डीएमके का विरोध किया और विधान परिषद को समाप्त कर दिया। जिसके कारण कई DMK विधायक अयोग्य करार दिए गए थे।

जानकार बताते हैं कि करुणानिधि ने एमजीआर का मुकाबला करने के लिए अपने बेटे एम के मुत्तु को तमिल सिनेमा में लॉन्च कर दिया। इसका एहसास जब एमजीआर को हुआ तो वह पार्टी से अलग हो गए और अपनी पार्टी AIADMK बनाई। इसका खामियाजा करुणानिधि को भुगतना पड़ा। पार्टी की लोकप्रियता में एकाएक गिरावट देखी जाने लगी। 1977 में एमजीआर राज्य की सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए और 1987 तक करुणानिधि को विपक्ष में बैठना पड़ा था।

देवगौड़ा ने हिला दी थी हेगड़े की धरती: 1983 से लेकर 1988 तक देवगौड़ा रामकृष्ण हेगड़े सरकार में मंत्री थे। उन दिनों देवगौड़ा को भी सीएम पद का दावेदार माना जाता था लेकिन बाजी हेगड़े के पक्ष में गई थी। 1988 में हेगड़े की सरकार में फोन टैपिंग का मामला सामने आया। इस मामले के चलते तत्कालीन सीएम हेगड़े को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। वह अपनी ही पार्टी में अकेले हो गए थे। इसके बाद 1991 में देवगौड़ा जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने और 1994 में मुख्यमंत्री। यहीं से उनके पीएम बनने का रास्ते भी साफ हुआ था। देवगौड़ा से पहले हेगड़े को गैर कांग्रेसी खेमे से पीएम पद के संभावित उम्मीदवार के तौर पर देखा जाता था।