दिल्ली की राजनीति हर रोज बदल रही है। सालों से कांग्रेस के वोट बैंक मान लिए गए पूर्वांचल (बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड आदि) के प्रवासियों ने दिल्ली पर राज कर रही आम आदमी पार्टी (आप) का साथ देना शुरू किया था। उन्हें अपने पाले में लाने के लिए भाजपा ने बिहार मूल के मनोज तिवारी को दिल्ली भाजपा की बागडोर सौंप दी। उसका लाभ उन्हें पिछले साल के नगर निगम चुनावों में मिला। इसी से उत्साहित होकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए रामलीला मैदान में आयोजित पूर्वांचल के लोगों की पहली रैली को संबोधित किया। युवकों और महिलाओं की दो और रैली होने वाली है। भाजपा वोट बैंक को वापस लौटाने के प्रयास में कांग्रेस न्याय युद्ध से लेकर तरह-तरह के आंदोलन चला रही है। आप ने अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सात में से पांच उम्मीदवारों की एक तरह से घोषणा कर दी है। भाजपा को हराने के लिए आप कांग्रेस का साथ चाह रही है और कांग्रेस में इस मुद्दे पर नेताओं की राय बंटी हुई है।
आप का चुनावी आंकड़ा
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा दिल्ली की सभी सातों सीटों पर भारी अंतर से जीती थी। उसे 46 फीसद से ज्यादा वोट आए थे। 2009 के चुनाव में कांग्रेस उससे भी ज्यादा करीब 57 फीसद वोट लेकर सभी सीटें जीती थी। 2014 के चुनाव में सभी सातों सीटों पर कांग्रेस के बजाए आप दूसरे नंबर पर रही। आप को करीब 33 फीसद और कांग्रेस को 15 फीसद वोट आए थे। उसके बाद के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने रेकार्ड जीत हासिल की। उसे 70 सदस्यों वाली विधानसभा में 67 सीटें 54 फीसद वोट के साथ मिले। लेकिन 2017 के निगम चुनाव में वह भाजपा को लगातार तीसरी बार सत्ता में आने से नहीं रोक पाई। वह भाजपा के 36 फीसद के मुकाबले 26 फीसद वोट लाकर दूसरे नंबर पर रही। चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में बड़े पैमाने पर बगावत हो गई। बावजूद इसके उसे 22 फीसद वोट मिले।
कहीं कांग्रेस की स्थायी जगह न ले ले आप
दिल्ली में शुरू से ही कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला होता रहा है। इन दोनों के अलावा किसी चुनाव में जनता दल था। किसी चुनाव में बसपा तीसरे दल की भूमिका में रही। लेकिन सत्ता में आने वाली तीसरी पार्टी आप ही बनी। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव में अन्य के खाते में करीब दस फीसद, विधानसभा चुनाव में 20-25 फीसद तो नगर निगम चुनाव में 30-35 फीसद तक मत अन्य दलों के खाते में आते रहे। 2013 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाली आप ने उस तीसरी पार्टी की जगह ले ली और अगर यही सिलसिला चलता रहा तो आने वाले दिनों में कांग्रेस की स्थायी जगह ले लेगी। यही डर कांग्रेस नेताओं को सता रहा है। पहले तो माना गया कि यह पार्टी कांग्रेस से अधिक भाजपा के माने जा रहे मतदाताओं में सेंध लगाएगी लेकिन उसने कांग्रेस के ही माने जा रहे मतदाताओं को अपने पक्ष में किया। अभी कांग्रेस में आप से गठबंधन के लिए ऊहापोह बना हुआ है। संभव है कि कांग्रेस का एक वर्ग लोकसभा के साथ-साथ 2020 के शुरू में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन पर समझौते की पैरवी करे।
भाजपा की लहर 2014 जैसी नहीं
भाजपा की समस्या है कि 2014 में वह सभी सीटें जीती हुई है। सात में से कई सांसद ऐसे हैं जिनके बारे में यह धारणा है कि वे दोबारा किसी भी कीमत पर चुनाव नहीं जीत सकते हैं। यह भी माना जा रहा है कि इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर 2014 जैसी नहीं रहने वाली है और जो लाभ भाजपा को 2014 में कांग्रेस के मौजूदा सांसदों के खिलाफ मिला, वह लाभ कांग्रेस और आप उठाएंगे। भाजपा दोनों में गठबंधन न होने से थोड़ा सुकून में रह सकती है लेकिन सत्ता में रहने का उसे जो नुकसान तय है वह तो होगा ही। मौजूदा सांसदों के टिकट बदलने में जो दिक्कत पिछली बार कांग्रेस को हुई थी, वही इस बार भाजपा को हो रही है। दिल्ली का राजनीतिक गणित बदल गया है। दिल्ली का हर तीसरा-चौथा मतदाता पूर्वांचल का है। इसी के बूते अनेक नेता विधायक और सांसद बने। शुरुआत कांग्रेस के महाबल मिश्र से हुई और उसको मान्यता भाजपा के मनोज तिवारी ने दिलाई। दिल्ली भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दूबे कहते है कि पूर्वांचल के लोगों को सत्ता में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।
