राजधानी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को कम करने की कवायदों के बीच दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था दुरुस्त करने की बहस भी चल पड़ी है। सवाल उठ रहा है कि लोग सरकार की भावना तो समझ रहे हैं पर रोज की दिनचर्या को कैसे संभालें। लोगों का कहीं पहुंचना पहले से ही एक बड़ी चुनौती है? इसके समाधान के लिए बहुआयामी परिवहन प्रणाली को कैसे एकीकृत और प्रभावी बनाया जाए इस पर ठोस पहल की दरकार है। दिल्ली सरकार ने अदालत से एक हफ्ते का और समय मांगा है। लेकिन यह नहीं बताया कि अगर सम-विषम आगे बहाल हुआ भी तो समाधान क्या देगी क्योंकि स्कूल खुलने के साथ ही स्कूलों की बसें भी वापस हो जाएंगी। वहीं दिल्ली सरकार के पास कुछ निजी बस आपरेटरों की अर्जी लंबित है।
दिल्ली में कामकाज के सिलसिले में कही भी पहुंचना पहले से ही एक बड़ी चुनौती है। इसी के चलते जहां सड़कों पर कारों का रेला बढ़ता जा रहा है। वहीं सार्वजनिक परिवहन प्रणाली भीड़ के आगे हांफती नजर आती है। सम-विषम योजना लागू होने के दौरान लोगों के उठाए कदमों से यह बात और साफ हो गई है कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की वहन क्षमता को बढ़ाए बिना समाधान संभव नहीं है। मेट्रो दिल्ली की जीवन रेखा भले कही जा रही है। लेकिन इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। इन दिनों इसके यात्रियों की संख्या सामान्य दिनों से दिनों से कुछ ही अधिक हो गई है। मेट्रो स्टेशनों तक पहुंचना (नोएडा, गाजियाबाद व फरीदाबाद) आज भी टेढ़ी खीर है। यहां तक कि सुविचारित और संगठित ढंग की फीडर सेवा चलाने की कोई व्यापक योजना भी नहीं है। कुछ फीडर सेवा डीएमआरसी के पास तो कुछ निजी आपरेटरों के मनमाने और लाठी के हिस्से में है।
दिल्ली की भौगोलिक पृष्ठभूमि के लिहाज से बसों को काफी लोकप्रिय और किफायती परिवहन प्रणाली माना गया है। लेकिन दिल्ली परिवहन निगम के पास पर्याप्त संख्या में बसें नहीं हैं। महंगी बसों की खरीद ने डीटीसी का पहले ही भट्ठा बिठा दिया। पहले भी जरूरत भर की बसें डीटीसी के पास नहीं थीं। तब निजी आपरेटरों की बसें सड़कों पर आईं। पर अधिक कमाई की होड़ और अनियंत्रित परिचालन ने 1992 में आई इन लाल रंग की बसों को दुर्घटनाओं के रिकार्ड ने खूनी खेल वाली किलर बसें बना दिया। तब इन पर 1997 में लगाम लगाई गई, रेड लाइन व्यवस्था खत्म कर। इसके बाद किलोमीटर योजना के तहत यही बसें लाई गईं। इससे दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली थोड़ी तो बेहतर हुई। लेकिन डीटीसी इस योजना से घाटे में आ गई, क्योंकि किलोमीटर बढ़ाने के चक्कर में रास्ता नापती बसों ने किलोमीटर तो पूरे किए लेकिन यात्रियों को उतारने चढ़ाने के लिए बस स्टैंड पर रुकना तक जरूरी नहीं समझा।
इस बीच दिल्ली में सन 2002 में हवा से प्रदूषण के खतरनाक स्तर को कम करने के लिए एमसी मेहता की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को अनिवार्य रूप से सीएनजी पर लाया जाए। इसके बाद बड़े पैमाने पर सीएनजी बसें लाई गईं। डीटीसी की नई बसें खरीदी गईं। लेकिन तब भी कम लागत की अधिक बसें नहीं आधिक लागत की कम बसें खरीदी गईं। निजी आपरेटरों ने भी आदालत के आदेश को माना। तब निजी बसों की तादात डीटीसी से भी अधिक थी। तब निजी आपरेटरों की 5560 बसें थीं।
किलोमीटर योजना को सफल बनाने की ईमानदार कोशिश व निगरानी के बजाय एक और प्रयोग किया गया। लेकिन एक बार फिर निजी बसों के परिचालन की व्यवस्था खत्म कर दी गई। किलोमीटर योजना खत्म कर निजी आपरेटरों की बसें सीधे स्टेज कैरिज (एसटीए) परमिट देकर ब्लूलाइन के नाम से चलाई गईं। बसों को तब सीधे चलाने व कमाई की छूट दी गई। कमाई के चक्कर में एक बार फि र इन बस चालकों और डीटीसी कर्मियों की मिलीभगत से ब्लूलाइन बसें फिर एक बार डीटीसी को घाटा देने लगीं। ये बसें डीटीसी की बसों के आगे दौड़ती थीं और क्षमता से कई गुणा अधिक यात्री भर लेते थे। इस चक्कर में फिर दुर्घटनाओं का रिकार्ड बनने लगा। बाद में ब्लूलाइन व्यवस्था भी खत्म कर दी गई। इसके बाद आया क्लस्टर बसों का जमाना। लेकिन इनमें छोटे आपरेटरों को तवज्जो नहीं मिली भारी भरकम पूंजी वाले ही इसमें बसें लगा सकते हैं। इस बजह से बसों की तादत अभी भी कम है।

