मुहर लगा…पर वरना गोली खाओ छाती पर। कभी चंबल घाटी में चुनाव के दौरान ऐसे नारों की गूंज हुआ करती थी लेकिन आज इस तरह के नारे इतिहास के पन्नों मे दर्ज हो गए हैं। क्योकि खंूखार डाकुओं के अंत ने इन फरमानों पर विराम लगा दिया है। चंबल घाटी से जुड़े चकरनगर इलाके में कभी खूंखार डाकुओं का फतवा अहम होता था। फतवे के आधार पर ही प्रधान चुने जाते थे लेकिन अब दस्यु दलों का सफाया होने के बाद अब इस क्षेत्र में प्रधानी के चुनाव पर धन व शराब का असर दिख रहा है।

आज भले ही डाकुओं के फरमान नहीं हैं। लेकिन इतिहास पर नजर डाले तो बीहड़ के 200 गांव एक अर्से से दस्यु प्रभावित रहे हैं। ग्राम पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों तक यहां खूंखार डाकुओं के फरमान पर मतदाता वोट डालने को विवश हुए हैं। बीहड़ की धरती गवाह है कि जिसने भी दस्यु सरगनाओं की हुक्मउदूली की उसे परिणाम भुगतना पड़ा। बीते दो दशक के दौरान दर्जनों कुख्यात डकैत या तो ढेर कर दिए गए या आत्मसर्पण कर जेल पहुंच गए

डाकुओं के फरमान की शुरुआत चंबल घाटी में जातीय आधार पर पंचायत चुनाव में 1990 से शुरू हुई। उसके बाद इसका प्रभाव बढ करके विधानसभा से होते हुए लोकसभा चुनाव तक आ पहुंचा। 1996 में लखना विधानसभा सीट से चुनाव में मैदान में उतरी सपा उम्मीदवार सुखदेवी वर्मा के पक्ष में डाकू रज्जन गूर्जर आदि डकैतों ने फरमान पहली बार जारी किया। इसका प्रभावी असर देखने को मिला कि सपा उम्मीदवार की जीत हुई।

भले ही इस समय विधानसभा चुनाव हो रहा हो लेकिन 1998 के लोकसभा में भाजपा के टिकट पर उतरी सुखदा मिश्रा के पक्ष में उस समय के कुख्यात डाकू रामआसरे उर्फ फक्कड़ ने पूरी चंबल इलाके के हर मतदान केंद्र पर बूथ लूट किया था। इसके नतीजे में सुखदा मिश्रा के रूप में पहली बार भाजपा इटावा संसदीय सीट जीतने में कामयाब हो गई। लेकिन जिन शर्तों पर फक्कड़ ने सुखदा मिश्रा की मदद की वो समर्पण सुखदा मिश्रा अपने स्तर पर करा पाने में कामयाब नहीं हुई।

2005 के चुनाव में जगजीवन परिहार ने चौरेला से अपने एक परिवारी को चुनाव जितवाया तो कुर्छा, कुंवरपुरा, विडौरी, नींवरी व हनुमंतपुरा सहित दर्जनों पंचायतों में दस्यु निर्भय गुर्जर के लोग चुनाव जीत गए। इतना ही नहीं पंचायतों के चुनाव में मात्र 7, 11 और 21 वोटों पर चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर दी गई। कुर्छा में डकैतों के फरमान का असर ये हुआ कि किसी ने पर्चा ही नहीं भरा। एक साल बाद प्रशासन ने बड़ी मशक्कत से चुनाव करवाया तो जीते हुए प्रधान को गांव छोड़कर इटावा रहना पड़ा। इतना ही नहीं क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने गए एक जन प्रतिनिधि की तो निर्भय गुर्जर ने गांव आकर उसकी नाक इसलिए काट ली क्योंकि उसने चुनाव लड़ा और स्कूल के लिए जमीन दी।

चकरनगर ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर 2000 से 2010 तक निर्विरोध चुनाव होता रहा। दस्यु दलों का खौफ चंबल और यमुना पट्टी के बीहड़ी गांवों में इस तरह हावी था कि इकनौर, मड़ैयान, दिलीपनगर, अंदावा आदि गांवों में मतदान सीधा उससे प्रभावित होता था। अब ना तो डाकू है ना उनके फतवे लेकिन आज शराब चुनाव में जीत को सबसे बड़ा माध्यम बन चुकी है। कभी फतबे सबसे अहम थे आज शराब का दिखने लगा है बोलबाला।