उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अलम्बरदारी का खम्म ठोंकने वाली बहुजन समाज पार्टी और उनकी राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती को 2007 में सोशल इंजीनियरिंग का ऐसा चस्का लगा कि अब वह उनकी जुबान से जाता ही नहीं। यह वही साल था जब बसपा की सरकार ब्राह्मणों ने ही बनवाई थी। लेकिन सरकार बनते ही जिस तरह उत्तर प्रदेश के विप्रों से पार्टी ने किनारा किया, उसकी नाराजगी अब तक बहनजी को मन ही मन कहीं साल रही है। यही वजह है कि अब तक दो लोकसभा और तीन विधानसभा चुनावों में विप्रों को साध पाने में नाकाम रहे सतीश चन्द्र मिश्र फिर अंधेरे में रोशनी की तलाश में निकले हैं।

उत्तर प्रदेश में 15 वर्षों में ब्राह्मण, क्षेत्रीय दलों की सरकार के रहते प्रदेश की सत्ता में सीधी भागीदारी से वंचित रहा है। चाहे बहन जी रही हों या समाजवादी पार्टी के पूर्ण प्रमुख मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र व सपा के मौजूदा अध्यक्ष अखिलेश यादव। अपनी सरकारों में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने सर्वाधिक दूरी यदि किसी से बना कर रखी तो वे प्रदेश के 11 फीसद से अधिक ब्राह्मण थे। अब दोनों ही सियासी दलों को ब्राह्मण सत्ता की दहलीज तक पहुचाने वाली सीढ़ी के तौर पर नजर आ रहे हैं। इसलिए राजनीतिक अवसरवाद सपा और उनकी पूर्व सहयोगी रही बसपा को ब्राह्मणें की दहलीज तक ले जाने को बार बार मजबूर कर रहा है।

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती ने ब्राह्मणों की अलम्बरदारी का गुमान करने वाले सतीश चन्द्र मिश्र को ब्राह्मण साधो अभियान पर भेजा है। इस काम में उनका अनुभव भी काफी पुराना है। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के दरम्यान बहनजी को 44 सीटें और प्रधानमंत्री का ख्वाब दिखाने वाले बहुजन समाज पार्टी के नेताओं को यह अहसास हो चुका था कि अब ब्राह्मण उनसे छटक चुका है। इस छिटकाव को वापस लाने के लिए सतीश चन्द्र मिश्र ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेल करने शुरू किए। ब्राह्मणों का सम्मेलन करने के लिए खुद को ब्राह्मणों का नेता भी जताना और बताना जरूरी था। यह काम भी उन्होंने किया और आज भी कर रहे हैं।

सम्मेलनों में आने वाले विप्रों के माथे पर तिलक लगा कर सम्मानित करने का संदेश देने की कोशिश हुई। उस वक्त पूरे उत्तर प्रदेश में सतीश चन्द्र मिश्र ने 58 ब्राह्मण सम्म्मेलन किए लेकिन 2007 में बनी मायावती सरकार के प्रति नाराजगी ने इन सम्मेलनों में भीड़ बहुत कम कर दी। उन्हें मान-मनौैवल के साथ सम्मेलनों में बुलाने के लिए बसपाइयों ने पूरी ताकत झोंक दी। लेकिन वे ब्राह्मणों की नाराजगी को दूर न कर पाए। वह नाराजगी अब तक बरकरार है। उस नाराजगी के साथ ब्राह्मण सतीश चन्द्र मिश्र को कितना अपना मानते हैं, यह बसपा के विप्र साधो अभियान के नतीजे बताते हैं।

वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी सतीश चन्द्र मिश्र को बहनजी ने एक बार फिर ब्राह्मणों को साधने के लिए भेजा, परिणाम सिफर रहा। बसपा की सरकार को उत्तर प्रदेश की जनता ने सिरे से नकार दिया और ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी के पाले में जा कर खड़ा हो गया। नतीजतन अखिेश यादव की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी हुई। लेकिन ब्राह्मणों को साध पाना अखिलेश के लिए भी टेढ़ीखीर साबित हुआ। उसकी बड़ी कीमत 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पांच सांसदों की जीत के साथ चुकानी पड़ी। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों के भारतीय जनता पार्टी को दिए पूर्ण समर्थन ने अखिलेश यादव को भी चारों खाने चित कर दिया। सरकार भी गई, सांसद भी कम हुए और जनता के बीच साख भी।