बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में शुक्रवार को व्यवस्था दी कि कोई भी महिला अगर तलाक लेने से पहले अपना ससुराल वाला घर छोड़ दी है तो वह वहां पर अंतिम फैसला होने तक फिर नहीं रह सकती है। कोर्ट ने कहा कि वह घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम 2005 (डीवी अधिनियम) के तहत निवास के अधिकार की मांग नहीं कर सकती, भले ही महिला की अपील पर तलाक के खिलाफ डिक्री भी लंबित हो।

उमाकांत हवगिराव बोंद्रे बनाम साक्षी मामले में न्यायमूर्ति संदीपकुमार मोरे की खंडपीठ ने निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें महिला को घर में उपलब्ध सुविधाओं का प्रयोग करने और निवास करने की अनुमति दी गई थी। इससे पहले अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम 2005 (डीवी अधिनियम) की धारा 17 निवास का अधिकार प्रदान करती है, लेकिन यह केवल तभी उपलब्ध होगा जब महिला तलाक से पहले उस घर में रह रही हो।

पीठ ने कहा, “तलाकशुदा पत्नी पहले के निवास आदेश का सहारा नहीं ले सकती है, जब उसके पति के साथ उसका विवाह न्यायालय से पारित तलाक की डिक्री द्वारा भंग कर दिया गया हो और तब जबकि वह चार साल पहले ही अपनी ससुराल छोड़ चुकी हो। इन परिस्थितियों में, वह बेदखली रोकने की राहत की भी हकदार नहीं है क्योंकि उसके पास साझा गृहस्थी का अधिकार नहीं है।”

निचली अदालत ने महिला को घर में रहने की इजाजत दी थी

अदालत ससुराल वालों द्वारा दायर एक पुनरीक्षण आवेदन पर सुनवाई कर रही थी जिसमें एक मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें तलाकशुदा पत्नी को साझा घर में रहने की इजाजत दी गई थी, जो कि वैवाहिक घर था, जो उसके अब अलग हो चुके ससुर के नाम पर था।

तलाकशुदा पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि तलाक की डिक्री को उसके द्वारा दायर अपील के माध्यम से इस आधार पर चुनौती दी गई है कि यह धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी, और अपील अभी भी विचाराधीन है। पीठ ने कहा कि पत्नी ने तलाक से काफी पहले ही वैवाहिक घर छोड़ दिया था। पत्नी यह दर्शाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई भी सामग्री पेश करने में विफल रही कि उसे पति या ससुराल वालों द्वारा वैवाहिक घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था।