लंबी चोंच वाले गिद्ध (जिप्स इंडिकस) की आबादी 99 फीसदी खत्म हो चुकी है। इसका मुख्य कारण मवेशियों को दी जाने वाली कुछ नॉन-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवाओं (NSAIDs) का इस्तेमाल है। इन्हें ‘जटायु’ के नाम से भी जाना जाता है।

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने कहा कि जब गिद्ध इलाज किए गए मवेशियों के शवों को खाते हैं, तो इन दवाओं के अवशेष उनकी किडनी को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है।

राजस्थान और मध्य प्रदेश में उठाए गए कदम

बीएचएनएस कि लुप्त हो रही पक्षियों की जनसंख्या बनाए रखने के लिए राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में बने गौशालाओं में पशुओं को वो दवाईयां नहीं दी जा रही जो गिद्धों के लिए खतरनाक है।

बीएचएनएस ने कहा कि कई गौशालाओं ने गिद्ध-टॉक्सिक ड्रग जैसे डिक्लोफेनेक, एक्लोफेनेक, केटोप्रोफेन और न्यूमोसलाइड को बंद कर दिया है और इनकी जगह सुरक्षित दवाएं जैसे मेलोक्जिम और टोलोफेनमिक एसिड देना शुरू कर दिया है।

बीएनएचएस के निदेशक ने कही ये बात

वाइल्ड लाइफ रिसर्च और कंजर्वेशन आर्गनाईजेशन ने कहा कि कई गौशालाओं ने मृत पशुओं को दफनाना भी बंद कर दिया है और शवों को दूरस्थ इलाकों में गिद्धों को खाने के लिए छोड़ देते हैं। बीएनएचएस के निदेशक किशोर रिठे ने कहा, ये तरीके लुप्त हो रहे गिद्धों की कम हो रही संख्या में मदद करेंगे और कुछ इलाकों में धीरे-धीरे इनकी संख्या में सुधार भी हुआ है।

उन्होंने कहा कि गिद्धों की आबादी को बचाने में गौशालाएं अहम भूमिका निभाती हैं क्योंकि वे बड़ी संख्या में मवेशी पालते हैं।

किशोर रिठे ने कहा, “जहरीली दवाओं से जानवरों को बचाकर और शवों को गिद्धों के लिए पारंपरिक तरीके अपनाकर वे गिद्धों को सुरक्षित खाना दे रहे और बीमारियों को फैलने से रोक कर लोगों के स्वास्थ्य को सपोर्ट कर रहे।”

जोरबीर कंजर्वेशन रिजर्व बने गिद्धों के लिए घर

बीएनएचएस के उप निदेशक डॉ सुजित नरवड़े ने कहा कि बीकानेर के पास जोरबीर कंजर्वेशन रिजर्व जैसे इलाके, गौशालाओं द्वारा प्रकृति-अनुकूल जानवरों के शवों को ठिकाने लगाने के तरीकों के कारण वहां रहने वाले और प्रवासी गिद्धों के लिए घर बन गए हैं। आगे कहा कि बीएनएचएस पिछले कई सालों से इस क्षेत्र में गिद्धों की आबादी पर नजर रख रहा है।

बीएनएचएस ने कहा कि ऐसे ही तरीके मध्य प्रदेश ने भी अपनाएं हैं जिसमें भोपाल के पास बने रामकली गौशाला शामिल है।

पर्यावरण के लिए अहम हैं गिद्ध

बीएनएचएस ने कहा, “गिद्ध पशुओं के शवों को खाकर पर्यावरण को साफ करने में अहम भूमिका निभाते हैं और बीमारी फैलने से भी रोकते हैं। भारत में गिद्धों की आबादी पिछले दशक से तेजी से घटी है, इससे पारसी ‘टार्वस ऑफ साइलेंस’ जैसे पारंपरिक सिस्टम पर भी असर पड़ा है।

यह संस्था गिद्धों को बचाने के लिए ‘ब्रिंगिंग बैक द एपेक्स स्कैवेंजर’ नाम से एक गिद्ध संरक्षण कार्यक्रम चला रही है। इस माह की शुरुआत में हरियाणा के एक संरक्षण केंद्र में पाले गए 15 गिद्धों को महाराष्ट्र के मेलघाट टाइगर रिजर्व में छोड़ा गया है।

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) ने भारत के ओरिएंटल व्हाइट-बैक्ड, लॉन्ग-बिल्ड और स्लैंडर-बिल्ड गिद्धों को गंभीर रूप से लुप्तप्राय कैटेगरी में रखा है।

इनपुट- पीटीआई