बिहार की राजनीति में पाला बदलने का खेल पुराना है, पार्टियों में टूट पड़ना, दावेदारी पेश करना, सबकुछ आम है। साल 2021 में एलजेपी में भी ऐसी ही फूट पड़ी थी। चिराग अलग हुए, पशुपति पारस पार्टी के सांसद लेकर उड़ गए। नतीजा ये निकला कि बीजेपी ने पशुपति पारस को मान्यता दी, उनकी एलजेपी से गठबंधन किया और मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिया गया। चिराग अकेले पड़ गए, इकलौते सांसद रह गए, लेकिन राज्य का दौरा करते रहे, युवाओं के बीच अपनी पैठ जमाने में काफी हद तक कामयाब रहे। नतीजा, फिर हवा बदली है, जिस चिराग को दो साल पहले अकेले छोड़ दिया गया था, अब फिर उन्हें एनडीए की गोद में बैठा दिया गया है।

चिराग पर बीजेपी मेहरबान, पशुपति का क्या होगा?

यानी बिहार की इस बदली तस्वीर ने सबसे ज्यादा परेशानी पशुपति पारस के लिए खड़ी कर दी है। बताया जा रहा है कि चिराग की एनडीए में एंट्री कई शर्तों के साथ हुई है। पहली शर्त- 6 लोकसभा सीटों से चुनाव, दूसरी शर्त- मंत्रिमंडल में शामिल होना, तीसरी शर्त- एक राज्यसभा सीट। ये वो डिमांड हैं जो किसी जमाने में स्वर्गीय राम विलास पासवान बीजेपी के सामने रखा करते थे। अब अगर ये सारी शर्तें मान ली जाती हैं तो उस स्थिति में पशुपति पारस का क्या होगा? इस समय पारस केंद्र में खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय संभाल रहे हैं, कभी राम विलास पासवान के पास भी यहीं मंत्रालय था। इसी वजह से माना जा रहा था कि पशुपति पारस सही मायनों में अपने भाई के उत्तराधिकारी बनते जा रहे हैं।

पशुपति की कमजोरी और चिराग की बढ़ती लोकप्रियता

लेकिन पिछले कुछ महीनों में बिहार की तस्वीर बदली है। चिराग पासवान ने जिस तरह से पूरे बिहार का दौरा किया है, जिस तरह से उन्होंने खुद को युवाओं के बीच एक लोकप्रिय चेहरा बनाया है, ये बात साफ हो जाती है कि बीजेपी को इस समय उनकी जरूरत है। बिहार में एक तरफ जहां नीतीश कुमार ने आरजेडी से हाथ मिला रखा है, ऐसे में उस समीकरण को टक्कर देने के लिए बीजेपी चिराग को अपने साथ चाहती है। ये नहीं भूलना चाहिए कि बिहार की राजनीति में पासवान वोटर की भी अपनी अहमियत है। कहने को सिर्फ 6 फीसदी हैं, लेकिन कई सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं। पशुपति पारस को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने पार्टी पर जरूर अपना कब्जा जमाया, लेकिन रामविलास पासवान के कोर वोटर को बीजेपी के साथ नहीं जोड़ पाए।

दलित राजनीति और पासवान वोटर

इसी वजह से बीजेपी अब चिराग पासवान को आजमाना चाहती है। राज्य में दलितों की कुल संख्या 16 फीसदी है, इसमें महादलित को भी शामिल किया जा सकता है। अब जीतनराम मांझी पहले ही पाला बदल एनडीए में आ चुके हैं, उपेंद्र कुशवाहा से बातचीत जारी है, ऐसे में चिराग का साथ आना दलित वोटबैंक को लेकर बीजेपी को आश्वस्त कर सकता है। वैसे चिराग की बढ़ी सियासी ताकत पर बिहार की राजनीति पर मजबूत पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी से बात की गई।

विरासत पूरी तरह चिराग की तरफ शिफ्ट- कन्हैया भेलारी

कन्हैया भेलारी ने दो टूक कहा है कि राम विलास पासवान की विरासत पूरी तरह से चिराग पासवान को शिफ्ट कर गई है। पशुपति पारस दावे कितने भी कर लें, लेकिन उनका समर्थन घटता जा रहा है। जो 6 फीसदी के करीब पासवान वोटर है भी, वो अब चिराग के साथ दिखाई दे रहा है। वे ये भी मानते हैं कि पशुपति पारस वर्तमान में बीजेपी पर एक बोझ बन गए हैं। चुनाव है, ऐसे में वे अभी साथ दिख रहे हैं, लेकिन हो सकता है कि वे बाद में खुद अलग हो जाएं या फिर उन्हें बाहर कर दिया जाए।

पशुपति पारस कोई वजूद नहीं- भेलारी

पशुपति पारस की सियासत को इस समय भेलारी काफी कमजोर मान रहे हैं। उनकी नजर में वर्तमान स्थिति के हिसाब से बिहार की राजनीति में उनका कोई वजूद नहीं है। उनके मुताबिक राम विलास पासवान की ये आदत थी कि वे अपने भाई, अपने परिवार को हमेशा साथ लेकर चलते थे। इसी वजह से पशुपति पारस इतने आगे तक बढ़ गए। लेकिन इस बार की स्थिति को देखते हुए कन्हैया भिलारी जोर देकर कह रहे हैं कि शायद पशुपति पारस को एक भी सीट ना मिल पाए। यानी कि हाजीपुर सीट पर उनके द्वारा किया जा रहा हा दावा कमजोर पड़ सकता है।

बीजेपी का क्या गेम प्लान है?

वैसे कुछ जानकार ऐसा भी मानते हैं कि बीजेपी सीधे-सीधे पशुपति पारस को शायद अभी बाहर का रास्ता ना दिखाए। कोशिश ये की जा सकती है कि कैसे एलजेपी के दोनों धड़ों को फिर साथ लाया जाए। इस समय जिस तरह से विपक्ष खुद को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है, बीजेपी भी अपने साथियों को एक रखना चाहती है। इसी कड़ी में इस समय चिराग पासवान को इतनी तवज्जो दी जा रही है। बीजेपी नहीं चाहती कि चिराग महागठबंधन के साथ चले जाएं, ऐसे में उनकी शर्तों को भी मानने पर विचार किया जा रहा है और शायद आने वाले दिनों में उन्हें मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिया जाए।