बिहार में हम कैसी होली खेल रहे है-खून की होली? इस पर चिंता इस वजह से खड़ी हुई कि दो रोज में पचास से ज्यादा लोगों को खून की होली खेलते हमेशा के लिए सुला दिया गया। इनमें कहलगांव के छह साल का मासूम प्रीतम कुमार से लेकर लखीसराय का प्रॉपर्टी डीलर अरुण सिंह या पटना का कन्हैया कौशिक भी है। प्रीतम को शराब की बोतल फोड़ उसी से गले पर तीन दफा प्रहार कर जान ले ली गई।
यदि होली पर बिहार में सड़क हादसे के आंकड़े जोड़ दे तो मरने वालों की संख्या अस्सी पार कर गई। यह केवल दो रोज में मौत का आंकड़ा है। दिल्ली दंगे में मृतकों की संख्या एक हफ्ते या पंद्रह रोज में भी इस आंकड़े को छू नहीं सकी। यों भागलपुर के जगदीशपुर के भरोखर ग़ांव में होली की रात डीजे पर देशभक्ति गीत बजाने पर ही विष्णुदेव मंडल को मौत के घाट उतार दिया। आरोप दूसरे समुदाय के शरारती तत्व पर लगा। मगर कौमी फसाद करा माहौल बिगाड़ने की पूरी कोशिश की गई। मगर भागलपुर 1989 में सदी का भीषणतम दंगे का दंश झेल चुका है। अब लोग पागल होने तैयार नहीं है।
होली पर रंग में भंग इस थर भी हुआ। भागलपुर में पार्ट टू के छात्र शुभम से उसका दोस्त बन विक्की सिंह होली के दिन गले मिला। फिर बाता-बाती कर कमर से चाकू निकाल दनादन प्रहार कर जान ले ली। यह कौन सी दोस्ती? कैसी होली? क्या हम खूनी होली खेलने कमर में तमंचा या चाकू खोंस सड़क पर निकले है। शराबबंदी वाले बिहार में शराब की बोतल फोड़ मासूम की जान ली जा रही है? यह कैसा सुशासन है? कैसी शराब बंदी है? सवालिया निशान उठना लाजिमी है।
शराबबंदी की देश में वकालत करते नेता बिहार की शराबबंदी की मिसालें दे रहे है। दूसरी तरफ होली जैसे त्योहार पर शराब पीकर लोग पागलों जैसी हरकत कर रहे है। कोई मटका फोड़ने के खेल के बहाने गोलियां दाग रहा है। कोई एक दूसरे समुदाय पर पत्थर फेक रहा है। हत्याएं तो करना लगता है इनका जन्म सिद्ध अधिकार बन गया है। ऐसे नहीं मरेंगे तो नशे में अंधा हो वाहन चढ़ा देंगे। दर्जनों ऐसे मर गए । हादसे एक- दो हो तो मानवीय भूल या वाहनों की मेकेनिकल गड़बड़ी मानी जा सकती है। पर थोक में सड़कों पर हुए हादसे तो नशा मुक्ति पर सवाल खड़े कर रहे है।
बिहार में चुनावी साल की होली गुजरी जरूर है । मगर कई सवाल छोड़ गई। राजनैतिक उथल-पुथल के बीच कपड़ा फाड़ बाप की जगह बेटे तेजप्रताप ने खेली। मगर लालूप्रसाद वाली रंगत नहीं आई। तीन साल से इनके जेल में बंद होने की वजह से लालूप्रसाद के परिवार में होली फीकी थी। तेजप्रताप ने थोड़ा रंग चढ़ाने की कोशिश की। पर वैसी नहीं रही।
कहने का मतलब यह है कि सरकार और विपक्ष दोनों ही बिहार की खूनी होली पर मौन है। और अपनी मस्ती में है। प्रशासन की नींद हराम है। मगर खबरें यहां तक मिली कि थानों में पुलिस वाले होली के मूड में रंग खेलते रहे और उधर गांवों -शहरों में अपनी रंजिश साधने लोग कट्टे -चाकू ले निकल अगले का काम तमाम कर दिया। होली का जश्न उनके परिजनों के लिए मातम में बदल गया। किसी की मां तो किसी की पत्नी रोई। बच्चें अनाथ हुए। गांवों में होली के गीतों की जगह रोने की आवाजें आने लगी।
पुलिस मुख्यालय हरेक त्योहार पर सदभाव और शांति की अपील कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। मगर फील्ड में तैनात पुलिसियों और एसपी रैंक के अफसरों की नींद हराम हो जाती है। अब तो ये भी सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटते नजर आ रहे है। वैसे भी बिहार की पुलिस चूहों को शराब पिलाने से लेकर थानों से बिक्री करने की माहिर है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए है।
लेकिन रंगों की होली को बदरंग करने से कब शर्म आएगी। हम कब जागरूक होंगे। क्या इसी तरह बैर साधने में अपना त्योहार फीका करते रहेंगे। इसका गहन विचार हमें करने की जरूरत है। ग़ांव के मुखिया-सरपंच-प्रमुखों , ज़िला परिषद के सदस्यों , विधायक व सांसद जनप्रतिनिधियों को चौपाल लगा आपसी वैमनस्य खत्म करने की पहल करनी चाहिए। ताकि लोग रंजिश को छोड़ अपने रोजगार में लगे। परिवार के साथ-साथ बिहार-देश तरक्की करें। ” बदलेगा बिहार अबकी फिर कुमार। ” जैसे नारों से बिहार की तकदीर बदलने वाली नहीं है। और न ही लिट्टी-चोखा खाने से।

