कोई चुनाव न जीतने वाले केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली को गुजरात विधानसभा चुनाव का प्रभारी बनाकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अनोखा प्रयोग किया है। गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का गृह प्रदेश होने के अलावा वहां भाजपा करीब 25 साल से सरकार में है। 2014 में लोकसभा चुनाव में अपने बूते बहुमत पाने वाले मोदी अपनी पार्टी को लगातार विधानसभा चुनाव जीताते जा रहे हैं। बिहार और दिल्ली में ही भाजपा पराजित हुई। बिहार में नीतीश कुमार के साथ सरकार बनाकर और दिल्ली में नगर निगमों के चुनाव जीतकर मोदी ने उस कमी को पूरा कर दिया है। इस साल के आखिर से लेकर अगले साल तक कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उनकी शुरुआत गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक से होने वाली है। इसलिए अमित शाह ने इन तीन राज्यों के चुनाव प्रभारी और उनके सहयोगियों की घोषणा गुरुवार को की। यह तय है कि चुनाव की कमान अमित शाह के पास रहने वाली है और स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी होंगे। जाहिर है, प्रभारियों के पास ज्यादा कुछ नहीं रहने वाला है लेकिन चुनाव की भूमिका बनाने से लेकर उम्मीदवार तय करने की मूल तैयारी तो चुनाव प्रभारी को ही करनी है। अजीब यह है कि उसकी जिम्मेदारी ऐसे नेता को दी गई है जिसे चुनाव जीतने का ही अनुभव ही नहीं है।
अरुण जेटली नामी वकील हैं और भाजपा से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सक्रिय रहे। हिंदी और अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार है। उसी के पैनल से 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने और 1975 के छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। उस चुनाव के अलावा पूरे राजनीतिक जीवन में उन्होंने पहला चुनाव 2014 में नवजोत सिंह सिद्धू की दावेदारी खारिज करके अमृतसर से चुनाव लड़े। उस चुनाव में कांग्रेस के कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने उन्हें एक लाख से ज्यादा मतों के अंतर से पराजित किया। टिकट कटने से नाराज सिद्धू आप होते हुए कांग्रेस गए। अभी तक पंजाब में भाजपा उनके कद लायक सिख नेता नहीं खोज पाई है। उस चुनाव में पार्टी ने अपने सभा बड़े नेताओं को लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा था। ज्यादातर नेता उस मोदी लहर में चुनाव जीत गए लेकिन जेटली उसमें भी सफल नहीं हुए। भाजपा समेत अन्य दलों के नेताओं से बेहतर रिश्ते के बूते ही वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी ऊंचे ओहदे पर रहे।
लगातार राज्यसभा से आने वाले जेटली के पास इस सरकार में वित्त और रक्षा जैसे दो सबसे महत्वपूर्ण विभाग हैं। इसके अलावा वे राज्यसभा में नेता भी हैं। भाजपा को राज्यसभा में बहुमत न होने के चलते वहां भी उन्हें ज्यादा समय लगाना पड़ता है। लंबे समय से बीमार होने के चलते वे बजट तक बैठकर पेश करते हैं और कम से कम लोगों से मिलते हैं। हर तरह से साधन संपन्न जेटली लंबे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद मोदी के ताकतवर होने के बाद अपने दिल्ली में होने का उन्हें एहसास कराया और उनका विश्वास जीता। दिल्ली के परंपरागत पंजाबी और वैश्य नेताओं ने जेटली को कभी भी महत्व नहीं दिया। पंजाबी नेताओं का तिकड़ी-केदार नाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा और मदन लाल खुराना के राजनीति से दरकिनार होने और वैश्य नेताओं के कमजोर पड़ने से जेटली दिल्ली के स्थानीय राजनीति में ताकतवर बने।
केंद्रीय मंत्री डा. हर्षवर्धन और विजय गोयल उनके करीबी नहीं माने जाते हैं। सीधे निगम पार्षद से प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए सतीश उपाध्याय को उनकी ही खोज माना गया। उन्हें गोयल, हर्षवर्धन के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। उपाध्याय के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद तो जेटली का दिल्ली में भी प्रभाव बढ़ गया और उनके यहां नेताओं का जमघट लगने लगा। यह भी कहा जा रहा है कि 2015 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पूर्व आइपीएस अधिकारी किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने की सलाह उनकी ही थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद नगर निगम चुनाव से पहले भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष सीधे अमित शाह ने बनवाया। चुनाव चाहे प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़ा गया लेकिन भाजपा तीसरी बाद चुनाव जीत गई। उस चुनाव के बाद मनोज तिवारी को दिल्ली का भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार मान कर उनका विरोध पार्टी के ही नेता करने लगे हैं। उसमें किसी एक ग्रुप के नेता नहीं हैं।
अमृतसर से चुनाव हारने का बाद जेटली की पंजाब में दखल कम इसलिए हो गया है क्योंकि विधानसभा चुनाव में भाजपा हाशिए पर पहुंच गई। इसके बावजूद केंद्र की राजनीति में जेटली की ताकत कम नहीं हुई है। उन्हें गुजरात विधानसभा चुनाव का प्रभारी बनाने के लिए यह तर्क दिया गया कि वे पहले भी गुजरात के प्रभारी रहे हैं। सालों से गुजरात में नेतृत्वविहीन कांग्रेस भाजपा का मुकाबला ही नहीं कर पा रही है। चाहे शंकर सिंह बाघेला हों या केशुभाई पटेल या अभी के प्रधानमंत्री मोदी, उन्हें गुजरात में कांग्रेस ने नहीं भाजपा ने ही चुनौती देने का काम किया। इसी से परेशान शंकर सिंह बाघेला ने अलग पार्टी बनाई, कांग्रेस में गए और अब विधानसभा चुनाव से पहले फिर कांग्रेस से अलग हुए। मोदी ने सबसे लंबे समय तक गुजरात में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली और उसी के बूते देश के नेता बने और दनादन रेकार्ड बनाते जा रहे हैं।
कहने के लिए अन्य राज्यों में भी चुनाव हो रहे हैं और जेटली के साथ प्रकाश जावड़ेकर को कर्नाटक और थावर चन्द्र गहलौत को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव का प्रभारी बनाया गया है। जैसी चुनौती गुजरात में है, वैसी उन राज्यों में नहीं हैं। अभी इसी महीने राज्यसभा के चुनाव में खुद अमित शाह और स्मृति ईरानी गुजरात से चुन कर आए। शाह के लाख प्रयास के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल भी चुनाव जीत गए। यह सही है कि भाजपा कई चुनावों से गुजरात में जीतती रही है लेकिन उसका वोट औसत और सीटें बढ़ नहीं रही है। इसलिए 182 सीटों वाली विधानसभा में जेटली की रणनीति से मिशन 150 पूरा होना चमत्कार ही माना जा रहा है। वैसे उनके साथ चार केंद्रीय मंत्री-नरेन्द्र सिंह तोमर, निर्मला सीतीरमन, जितेन्द्र सिंह और पीपी चौधरी भी लगाए गए हैं और भाजपा महासचिव भूपेन्द्र यादव को दो महीने पहले ही गुजरात का प्रभारी बनाया गया है।
