दिल्ली प्रदेश कांग्रेस में इन दिनों सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। शीला दीक्षित की सरकार में बरसों तक मंत्री रहे नेताओं और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर कांग्रेस आलाकमान ने युवा चेहरे के नाम पर पूर्व विधायक अनिल चौधरी को इस उम्मीद में प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपी थी कि वे वरिष्ठों और युवाओं में सामंजस्य स्थापित कर सबको साथ लेकर चलेंगे।
लेकिन चौधरी की कार्यशैली से नाराज कई वरिष्ठ नेता अब प्रदेश कार्यालय आने से ही परहेज करने लगे हैं। कहा जाता है कि आलाकमान ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रदेश कांग्रेस में भी वही भाई-भतीजाबाद और परिवारवाद थोपने की कोशिश की जिससे कार्यकर्ताओं में स्वाभाविक रूप में नाराजगी शुरू हो गई। नाराज कार्यकर्ताओं का कहना है कि संगठन की महत्वपूर्ण बैठकें नहीं होतीं।
कांग्रेस आलाकमान ने 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी में फेरबदल कर पांच उपाध्यक्ष बनाए ताकि नवनियुक्त युवा अध्यक्ष सभी को साथ लेकर और कार्यकर्ताओं की नाराजगी समाप्त कर पार्टी को आगे ले जाएंगे। लेकिन आलाकमान की मंशा पर उसी समय से सवाल उठने शुरू हो गए शुरू हो गए जब पता चला कि पांचों उपाध्यक्ष किसी न किसी पूर्व सांसद या पूर्व विधायक के बेटे या करीबी थे।
नवनियुक्त पांचों उपाध्यक्षों में कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रहे सुभाष चोपड़ा की बेटी शिवानी चोपड़ा, पूर्व सांसद और प्रदेश अध्यक्ष रहे जयप्रकाश अग्रवाल के बेटे मुदित अग्रवाल, पूर्व विधायक रहे हसन अहमद के बेटे अली मेंहदी हसन, कांग्रेस आलाकमान की करीबी रहीं एक कांग्रेस कार्यकर्ता के रिश्तेदार अभिषेक दत्त और फिर पांचवें नंबर पर चार बार के विधायक रहे और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पूर्व सचिव जयकिशन को भी उपाध्यक्ष बनाया गया। अब हाल यह है कि शिवानी चोपड़ा विदेश में बैठी हुई हैं।
मुदित अग्रवाल और अली मेंहदी हसन पार्टी दफ्तर से ही नहीं कार्यक्रमों से भी कन्नी काटते हुए चल रहे हैं। बांकी पांचों उपाध्यक्षों में सबसे ज्यादा दिल्ली में जो सक्रिय दिखते वे दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले जयकिशन हैं। प्रदेश कांग्रेस के कार्यक्रमों में जयकिशन के अलावा अन्य चारों उपाध्यक्षों को नहीं के बराबर देखा जाता है। चर्चा यह भी है कि अगर आलाकमान ने पांच उपाध्यक्ष बनाए तो उसमें सभी किसी ने किसी पूर्व सांसद, विधायक के बेटे और रिश्तेदार ही क्यों बनाए ? बरसों से जमीन पर कार्य कर रहे कार्यकर्ताओं को मौका क्यों नहीं दिया गया।
कांग्रेस दिल्ली में लगातार 15 साल तक शासन में रही है और एकीकरण से पहले दिल्ली नगर निगम में भी लगातार विपक्ष की भूमिका निभाती रही है। यही कारण है कि दिल्ली में भले ही सभी वरिष्ठों को मंत्री पद भले ही न मिला हो लेकिन निगम से लेकर पार्टी की तमाम रणनीतिक समितियों और दिल्ली सरकार के प्राधिकरण और बोर्डों में अपने वरिष्ठों को पदासीन कर तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सभी को समायोजित और खुश रखने की भरसक कोशिश करती रही थीं।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि हालांकि उस समय भी रामबाबू शर्मा और जयप्रकाश अग्रवाल ने कभी भी शीला दीक्षित को खुद से ज्यादा अहमियत नहीं दी और संगठन अपने हिसाब से ही चलाते रहे। पार्टी सूत्रों का कहना है कि मौजूदा अध्यक्ष भले ही केंद्र और आप सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार सड़क पर लाठी खाने और चोट खाकर अस्पताल में भर्ती होने में अव्वल दिखते हों लेकिन उनकी कार्यशैली से नाराज वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री अब पार्टी दफ्तर में नहीं दिखते।
एक समय शीला के खासमखास रहे पूर्व मंत्री अरविंदर सिंह लवली, राजकुमार चौहान, मंगत राम सिंघल, योगानंद शास्त्री, रमांकात गोस्वामी और किरण वालिया पार्टी के कार्यक्रमों से मुख मोड़े हुए हैं। योगानंद शास्त्री ने तो नाराजगी दिखाते हुए पार्टी ही छोड़ दी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में चले गए तो पहले नगर निगम के कद्दावर नेता रहे और बाद में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए रामबाबू शर्मा के बेटे विपिन शर्मा भी रोहतास नगर से दो बार विधायक जीते जरूर, लेकिन इस समय उस परिवार का कोई भी सदस्य सक्रिय नहीं दिखता। इसी प्रकार शीला दीक्षित के खास रहे वरिष्ठ कांग्रेसी चतर सिंह ने भी अब खुद को पार्टी के कार्यक्रमों से अलग-थलग कर लिया है। हस्तसाल से लगातार तीन बार विधायक रहे मुकेश शर्मा, भीष्म शर्मा, पूर्व महापौर सतवीर शर्मा और कृषि विपणन समिति के अध्यक्ष रहे राजेंद्र तंवर सहित कई कद्दावर निगम पार्षद भी अब पार्टी दफ्तर नहीं के बराबर आ रहे हैं।