पंजाब विधानसभा, दिल्ली नगर निगम और राजौरी गार्डन उप चुनाव हारने के साथ-साथ पार्टी में भारी बगावत और आला अफसरों के असहयोग झेलने के बाद आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल ने रास्ता बदल लिया है। अब वह और उनकी पार्टी केंद्र सरकार से लड़ते दिखने के बजाए अपने सीमित अधिकारों के बूते दिल्ली में जमे रह कर सक्रिय दिखने में लग गए हैं। मंत्रियों के विभागों में बदलाव और उपराज्यपाल अनिल बैजल से बेहतर संबंध बनाने की कोशिश इसी के संकेत दे रहे हैं। ‘आप’ नेताओं को यह लग गया है कि अगर सरकार छोड़कर भागे तो अगले साल के शुरू में दिल्ली से मिलने वाले राज्य सभा के तीनों सदस्यों के साथ-साथ दिल्ली से भी सफाया हो जाएगा। अगर उनका वोट बैंक वापस कांग्रेस के पास लौट गया तो उनके पांच साल के राजनीतिक सफर का भी अंत हो जाएगा। कांग्रेस तो पूरी ताकत से अपने वोट बैंक को वापस लाने में लगी ही हुई है, भाजपा भी अपने वोट बैंक के विस्तार के लिए हर प्रयास कर रही है।
बदली रणनीति के तहत ही मुख्यमंत्री तय मुद्दों पर ही बोल रहे हैं। भले ही आखिरी समय में फैसला बदल जाए लेकिन पार्टी देश भर के अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने के लिए ही दिल्ली से बाहर राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में चुनाव लड़ने की बात कह रही है। फरवरी 2015 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड जीत के बाद ‘आप’ हर चुनाव में कमजोर ही होती दिख रही है। यह भी साबित हो गया कि फरवरी 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे कांग्रेस को मिलने वाले ज्यादातर वोट मिले। उसमें करीब 13 फीसद मुसलिम वोटर भी शामिल हैं जिन्होंने 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट किया था। केजरीवाल सरकार के मंत्री रहे कपिल मिश्र के आरोपों ने केजरीवाल की ईमानदार नेता की छवि को ध्वस्त किया। वह उसे बचाने का कोशिश में चुप्पी लगाए हुए हैं लेकिन विपरीत हालातों में भी केजरीवाल ने अल्पसंख्यकों को नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं उन्हें अपने साथ करने के लिए उन्होंने अपने बेहद करीबी कुमार विश्वास को दरकिनार करना तय कर लिया। ओखला के विधायक अमानतुल्ला ने जिस तरह के आरोप विश्वास पर लगाए, बावजूद इसके उन्हें केजरीवाल ने महत्व देना बंद नहीं किया। केजरीवाल मुसलमानों को यह संदेश देने में सफल रहे कि वह उनके लिए किसी का भी साथ छोड़ सकते हैं।
इसी तरह पूर्वांचल मूल के लोगों के हर आयोजन में वह बढ़चढ़ कर सक्रिय रहकर उन्हें भी यह संदेश देने का प्रयास करते हैं कि सही में वह आपके हैं। पूर्वांचल के प्रवासी तो वास्तव में कांग्रेस के वोटर रहे हैं, भाजपा ने तो भोजपुरी के लोकप्रिय कलाकार मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर उसमें सेंध लगाने की कोशिश की है। आज की तारीख में तो यह दोनों वोट ही किसी दल को दिल्ली में जिताने में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। ‘आप’ की बड़ी समस्या यह है कि वह राजनीति में नई है, इसलिए उसका अपना कोई वोट बैंक नहीं है।
8 अगस्त के हाई कोर्ट के फैसले और उस फैसले के बाद सरकार की चार सौ से ज्यादा फाइलों की जांच करने वाली वीके शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद तो वैसे ही ‘आप’ के नेताओं के लिए दिल्ली के अफसरों से कोई काम करवाना कठिन होता जा रहा है। बिना नियम बनाए संसदीय सचिव बनाए जाने को भी बागी नेता कपिल मिश्र बार-बार उठा रहे हैं कि नियम विरुद्ध काम करके अनेक विधायकों की सदस्यता खतरे में डालने का अधिकार केजरीवाल को किसने दिया। देर सवेर इस पर चुनाव आयोग का अंतिम फैसला आएगा। माना जा रहा है कि यह जल्द ही आएगा। संभव है इसे ‘आप’ के विधायक अदालत में चुनौती दें। यह कहना जल्दबाजी होगा कि अगर आयोग ने सीटें खाली घोषित कर के उपचुनाव घोषित कर दिया तो चुनाव दिल्ली में राज्यसभा चुनाव से पहले हो जाएं। जो हालात है उसमें कभी भी चुनाव में ‘आप’ के सभी सीटें जीतने की उम्मीद नहीं है। माना जा रहा है कि उसके बाद ‘आप’ में भगदड़ मचेगी और सरकार भी बिखर जाएगी।
