राम नवमी जैसे-तैसे निपटी तो अब हनुमान जयंती आ गई सिर पर। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के लिए शनिवार का दिन चुनौतियों भरा होगा। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक बार फिर होंगे आमने-सामने। राम नवमी पर निकले जुलूसों के बाद भी हिंसा हुई थी। तीन लोग मारे गए थे और दर्जनों घायल हुए थे। भाजपा को मौका मिल गया था तृणमूल कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति अपनाने का आरोप मढ़ने का। राम नवमी के जुलूसों पर हमला करने वालों को बचाने का आरोप लगाने से भी नहीं चूके थे भाजपाई। कायदे से तो राज्य सरकार ने सशस्त्र जुलूसों पर रोक लगा दी थी। ताकि सांप्रदायिक फसाद न फैले। लेकिन भाजपा ने उसे भी सियासी मुद्दा बनाने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। दलील दे डाली कि राम नवमी के मौके पर तो हथियारों की पूजा हिंदुओं की प्राचीन परंपरा ठहरी।

इस पर कोई सरकार कैसे रोक लगा सकती है? ममता ने भी दो टूक कह दिया था कि जो चुनिंदा संगठन वर्षों से हथियारों के साथ जुलूस निकालते रहे हैं केवल उन्हीं को मिलेगी इजाजत। किसी अन्य संगठन को ऐसी इजाजत देने का सवाल ही नहीं। इसके बावजूद कई इलाकों में पुलिस की इजाजत के बिना ही निकल गए ऐसे सशस्त्र जुलूस। त्रिशूल और तलवारों की जैसे नुमाइश हो गई।

भाजपा के सूबेदार दिलीप घोष और महिला मोर्चे की मुखिया लाकेट चटर्जी के खिलाफ भी हुआ ऐसी कवायद के लिए मुकदमा। उस हिंसा से सबक ले सूबे की सरकार ने हनुमान जयंती के दौरान निकलने वाले जुलूसों में हथियार लेकर शामिल होने पर कड़ी पाबंदी लगा दी है। पुलिस को कड़ाई बरतने की सलाह अलग दी गई है। उधर सियासी पंडित फरमा रहे हैं कि अगले कुछ महीनों के दौरान सूबे में पंचायत चुनाव होंगे तो धार्मिक आयोजनों को भुनाने में न भाजपा कसर छोड़ेगी और न तृणमूल कांग्रेस। तनाव और वैमनस्यता बढ़े तो बढ़े। सियासी दलों का सरोकार तो वोट तक ही सीमित होता है।