राजस्थान में भाजपाई कुनबे में अब कलह सतह पर दिखने लगी है। वैसे भी पुरानी कहावत है कि टोटा हो जाए तो लड़ाई स्वाभाविक होती है। सूबे की सत्ता से दो साल पहले बाहर हो गई थी पार्टी। हार के बाद पार्टी की सबसे कद्दावर मानी जाने वाली नेता वसुंधरा राजे की आला कमान ने अनदेखी कर दी। लिहाजा वे आहत होकर बदला क्यों न लें। उनकी सलाह के बिना ही सूबे में आला कमान ने नए नेतृत्व को उभारने की कवायद अलग शुरू कर डाली। फिर तो महारानी को समझ आ गया कि अब उनकी हैसियत दोयम दर्जे की हो जाएगी।

जबकि मुख्यमंत्री रहते वे आलाकमान को ठेंगे पर रखती थीं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में पड़ोसी देशों तक से शासनाध्यक्ष आए थे। पर वसुंधरा अमेरिका चली गई थीं। बहरहाल नए पार्टी अध्यक्ष नड्डा उतने कड़क नहीं हैं। रही पार्टी की कलह की बात तो विधानसभा सत्र में सबने देखा। राज्यपाल के भाषण का पार्टी ने बहिष्कार किया तो कैलाश मेघवाल सदन में ही जमे रहे। फिलहाल वे सबसे वरिष्ठ विधायक हैं। विधानसभा अध्यक्ष रह चुके दलित नेता मेघवाल को वसुंधरा खेमे में गिना जाता है।

सदन से बाहर नहीं जाने के अपने फैसले के पक्ष में मेघवाल ने बाकायदा दलील भी दे डाली है। विरोधी खेमा उन पर अनुशासन का चाबुक चलवाना चाहता है। लेकिन 85 साल के बुजुर्ग दलित को आलाकमान शायद ही छेड़ें। जो केंद्र सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं। मेघवाल के मुद्दे पर पार्टी के सूबेदार सतीश पूनिया को आलाकमान की हरी झंडी का इंतजार है। फिलहाल तो नौजवान पूनिया ने यह कह कर पीछा छुड़ाया है कि मेघवाल के विधायक होने के कारण उनके मामले में कार्रवाई विधायक दल ही करेगा। मेघवाल के कंधे पर बंदूक रख परदे के पीछे से निशाना वसुंधरा ने ही लगाया है। इससे संकेत मिल रहे हैं कि आने वाले दिनों में पार्टी के भीतर तनातनी और बढ़ सकती है।