अशोक गहलोत अपनी पार्टी के नेताओं ही नहीं सरकार का समर्थन कर रहे निर्दलीय विधायकों के सब्र का भी जैसे इम्तिहान ले रहे हैं। सरकार बने एक साल से भी ज्यादा हो गया है। पर सत्ता सुख की रेवड़ियां बांटी न मंत्रिमंडल का विस्तार ही किया। जबकि उनकी सरकार बसपा से कांग्रेस में आए और निर्दलीय दोनों श्रेणी वाले विधायकों के बिना बहुमत न दिखा पाती। हर बार कोई न कोई अड़चन आ जाती है। या यूं कहें कि गहलोत को बहाना मिल जाता है बर्र के छत्ते में हाथ डालने से बचने का।
अब पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव का एलान हो गया है तो आचार संहिता की बंदिश शुरू हो गई। यानी इस दौरान किसी को लाभ का पद न दे पाएंगे। हां, ढाढस बंधाने के लिए गहलोत ही नहीं उनके उपमुख्यमंत्री और सियासी रूप से विरोधी गुट के अगुआ सचिन पायलट ने भी अपनी-अपनी सूची बना रखी है। किसे कहां एडजस्ट करना है। यह बात अलग है कि इन दोनों सूचियों पर आखिरी मुहर आलाकमान ही लगाएगा।
आलाकमान की नुमाइंदगी कर रहे हैं सूबे के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडेय। सूबे में पार्टी को गुटबाजी और कलह से बचा पाए तो पांडेय भी पूरा कर पाएंगे इस सूबे से राज्यसभा में दाखिल होने का अपना सपना। अगले साल राज्यसभा की तीन सीटों के लिए होगा यहां चुनाव। दो पर कांग्रेस की जीत तय लगती है। जहां तक समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों के धीरज का सवाल है, ज्यादातर कांग्रेसी अतीत वाले ठहरे। तो भी तेरह में से तीन से ज्यादा को मंत्री पद दे पाना मुमकिन नहीं लग रहा। इसमें भी सचिन पायलट ने फच्चर अलग फंसाई है।
बसपा से कांग्रेस में आए विधायकों का भी ख्याल रखना ही होगा। मंत्री पद की संख्या असीमित हो नहीं सकती। मुख्यमंत्री समेत बस 30 का ही हो सकता है अधिकतम गहलोत का मंत्रिमंडल। अविनाश पांडेय ने भी फिलहाल लालबत्ती और रेवड़ियों की बाट जोह रहे पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को पंचायत चुनाव में बेहतर नतीजे दिखाने की चुनौती दी है। जो इस कसौटी पर खरा साबित होगा उसी को देंगे पद। जाहिर है कि कम से कम छह महीने के लिए तो मामला लटक ही गया।