लड्डू दोनों हाथ

उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी यादव परिवार की कलह का मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव और अमर सिंह को चाहे जितना घाटा हुआ हो पर अपने खान साहब मजे में रहे। सियासी गुर तो कोई उनसे सीखे। नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते। गुट चुनने की बारी आई तो निर्गुट बन गए। फरमाया कि वे ठहरे समाजवादी। न अखिलेश के साथ हैं और न मुलायम के। वे तो समाजवादी पार्टी में हैं और रहेंगे। अंत में रहे अखिलेश के साथ ही। इसका फायदा भी उठा लिया। खुद तो रामपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ते ही रहे हैं, अपने बेटे को और उतार दिया सियासत में। बेटा अब्दुल्ला भी सपा के टिकट पर रामपुर की दूसरी सीट स्वार से टिकट पा गया है।

अभी तो महज 26 साल है उसकी उम्र। एमटेक की पढ़ाई की है। अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटते हैं खान साहब। पर बेटे को नौकरी नहीं कराई। अरबों रुपए की लागत से बना जौहर विश्वविद्यालय जिसके हवाले हो वह खुद नौकरी क्यों करेगा। औरों को नौकरी देने की हैसियत है मंत्री जी के साहबजादे की। यूपी में नगर विकास और वक्फ जैसे महकमों के अफसरों और ठेकेदारों के जौहर विश्वविद्यालय के निर्माण में योगदान को तो खान साहब भी नकार नहीं सकते। 2014 में अपनी पत्नी तजीन फातिमा को राज्यसभा में भिजवा दिया था। खुद कई-कई महकमों के पूरे पांच साल मंत्री बने रहे। अब बेटे का भी कर दिया जुगाड़। जय हो खान साहब के समाजवाद के नए वंशवादी अवतार की।

 

पर उपदेश कुशल मोदी

सियासत में दूसरों को कोसना एक फैशन बन गया है। अपने गिरेबां में कोई झांकता नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यही आदत पाल रखी है। जलंधर की चुनावी रैली में कांग्रेस को जमकर कोसा। यहां तक तो ठीक है पर क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन के लिए कोसने की बात जंची नहीं। मोदी ने कहा कि कांग्रेस ने यूपी में सपा से तालमेल किया है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से किया था। खुद भूल गए कि भाजपा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की कब से पिछलग्गू है। बिहार में खुद कितने दलों से गठबंधन किया था भाजपा ने। अब यूपी में भी कसर कहां छोड़ी है। अपना दल से लेकर आरके चौधरी तक के आगे घुटने टेके हैं जातीय समीकरण फिट करने के फेर में। पंजाब में तो अकाली दल का मोह उसे महंगा पड़ गया। नवजोत सिद्धू जैसा कद्दावर नेता उसे खोना पड़ा। मिसालें तो और भी तमाम हैं। उत्तर प्रदेश में छह-छह महीने अपना-अपना मुख्यमंत्री रखने का अभिनव सियासी प्रयोग 1997 में भाजपा ने ही किया था। जम्मू-कश्मीर में उसने उसी पीडीपी से मिलकर सरकार बना ली जिसे चुनाव प्रचार में अलगाववादियों का हिमायती बता कर कोसा था। बसपा के साथ तो भाजपा ने मिल कर यूपी में तीन बार बनाई सरकार। हरियाणा में कभी इनेलोद तो कभी हविपा तो कभी जनहित कांग्रेस को गले लगाया। लगता है कि काम के बोझ के चलते ठीक से होमवर्क नहीं कर पा रहे हैं मोदी। जलंधर में तो न जोश था और मुद्दे दमदार। शायद भीड़ कम देख मूड उखड़ गया हो। यों भी पंजाब में उनके गठबंधन की गत को लेकर कोई अनुकूल सर्वे या भविष्यवाणी तो सामने आई भी नहीं। केजरीवाल पर कांग्रेस जितने तीखे वार नहीं किए।
कमजोर कड़ी

पंजाब में चुनावी लड़ाई धीरे-धीरे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सिमटती नजर आ रही है। जंग जीतने के फेर में कांग्रेस को अपना तुरुप का पत्ता चलना ही पड़ गया। राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि पार्टी सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर होंगे। इस दांव से अरविंद केजरीवाल को फंसा दिया है। केजरीवाल मुख्यमंत्री के सवाल पर लगातार चुप्पी साधे हैं। उनके जूनियर मनीष सिसौदिया ने तो उन्हीं के मुख्यमंत्री होने का दावा कर पेंच फंसा दिया था। केजरीवाल इस राज को चुनाव निपटने तक राज ही रखना चाहते हैं। मजबूरी में कहना पड़ गया कि सूबे का मुख्यमंत्री पंजाब का ही होगा। प्रकाश सिंह बादल तो उन्हें लगातार बाहरी बता कर खारिज कर रहे हैं। नवजोत सिद्धू से सौदेबाजी नहीं हो पाने की वजह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी ही रही होगी। फिर बहुमत आया तो किसे बनाएंगे केजरीवाल मुख्यमंत्री। ले-देकर भगवंत मान ही नजर आते हैं। पर लोकसभा सदस्य होने के बावजूद सियासी जोड़-तोड़ और सरकार चलाने लायक कौशल तो दिखता नहीं उनमें। ऊपर से लोकसभा की तस्वीर को सोशल मीडिया पर प्रसारित कर फजीहत अलग कराई थी। कांग्रेस को टक्कर तो जरूर दे रही है आप पर मुख्यमंत्री का मजबूत चेहरा नहीं होना उसके लिए घाटे का सौदा भी बन सकता है। कैप्टन को उम्मीदवार घोषित कर देने से नवजोत सिद्धू के उनके विकल्प के रूप में उभरने की अटकलों पर भी विराम लग गया है। सिद्धू का इस्तेमाल तो कांग्रेस पार्टी बादल परिवार की बखिया उधेड़ने में कर रही है। रही आप पार्टी की बात तो पंजाब में प्रचार का सारा बोझ केजरीवाल को ही उठाना पड़ रहा है।