भाजपा से जमकर सियासी जंग लड़ रही हैं ममता बनर्जी। पश्चिम बंगाल से कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी को राज्यसभा का उम्मीदवार बना कर हर किसी को हैरान कर दिया। ऊपर से यह दलील अलग दे डाली कि सिंघवी देश के नामी वकील ठहरे। तृणमूल कांग्रेस के लोगों की अदालतों में पैरवी करते रहे हैं। पर असल मकसद तो कुछ और लगता है। कांग्रेस और माकपा की जुगलबंदी को पंचर करना। ऊपर से एक पंथ दो काज के अंदाज में राष्ट्रीय स्तर पर नए सियासी समीकरणों की आहट देना। यह बात अलग है कि सिंघवी के लिए ममता की पार्टी का इस तरह समर्थन करना कई कांग्रेसियों को ही अखर रहा है।
उन्हें डर सता रहा है कि इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश नहीं जाएगा। सूबे में कांग्रेस की किरकिरी ही होगी। इससे पहले भी सूबे के कई कांग्रेसी नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर चुकी हैं ममता। पर ममता अपने मिजाज की बेजोड़ नेता ठहरीं। उनका लक्ष्य अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा के अश्वमेध को रोकना लगता है। यानी इस सदाशयता के पीछे कांग्रेस के साथ सियासी तालमेल की भूमिका भी दिख रही है।
ममता ने तो सिंघवी के समर्थन का एलान नौ मार्च को ही कर दिया था। तब तक तो कांग्रेस पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार भी घोषित नहीं किया था। उधर, कोलकाता में कांग्रेस और माकपा के नेता किसी निर्दलीय को समर्थन देने की रणनीति बुन रहे थे। ममता की पेशकश कांग्रेस द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के बाद माकपा नेता कहते भी क्या? पार्टी विधायक दल के नेता सुजन चक्रवर्ती ने बुझे मन से टिप्पणी की कि कांग्रेस को जो सही जंचा होगा, उसने वही फैसला कर लिया। माकपा उसके बारे में कैसे कहे कि वह अत्याचारों के खिलाफ लड़ेगी या तृणमूल कांग्रेस की पिछलग्गू बनना चाहेगी।