शोक की घड़ी
सीडीएस बिपिन रावत उत्तराखंड की अपनी पहाड़ की माटी से अंतर्मन से जुड़े हुए थे। सीडीएस और जनरल जैसे पदों पर पहुंचने के बावजूद वे जब उत्तराखंड में आते थे तो अपने गांव जाते और उत्तराखंड के पहाड़ के लोगों से पहाड़ के आम आदमी की तरह घुल-मिलकर गढ़वाली भाषा में ही बातें करते। उन्हें पहाड़ी खाना बेहद पसंद था और वे पहाड़ी गानों की धुन पर थिरकना कभी नहीं भूलते थे। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की परेशानियों को समझते और बार-बार पहाड़ के लोगों को पलायन न करने की सलाह देते थे।
उनके मन में पहाड़ के विकास के लिए कई योजनाएं थी जिन्हें वे अमलीजामा पहनाना चाहते थे। जनरल बनने के बाद वे कई दफा उत्तराखंड के दौरे पर आए और कई कार्यक्रमों में भाग लिया। उत्तराखंड सीमांत प्रदेश है, इसका उन्हें खासा ध्यान था। इसलिए वे हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि सीमांत गांव में पलायन होना राष्ट्रीय हित में नहीं है। उत्तराखंड की जनता में वे इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके निधन की खबर सुनकर पूरा उत्तराखंड मातम में डूब गया। वे भारतीय सेना के पहले ऐसे पर्वतीय अधिकारी थे जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे।
उनकी पत्नी मधुलिका रावत भी बहुत व्यावहारिक और मिलनसार थीं। वे जब भी उत्तराखंड आते तो उनके साथ उनकी पत्नी जरूर आतीं। मधुलिका रावत फौजियों के बीच बहुत लोकप्रिय थीं। फौजियों के परिवार की वे बहुत फिक्र करती थीं और उनके लिए कई कल्याणकारी योजनाएं बनाती थीं। अपने मूल गांव पौड़ी गढ़वाल के सैंण और अपने ननिहाल उत्तरकाशी जिले के थाती गांव में जब जनरल रावत अपनी पत्नी के साथ ढाई साल पहले आए थे, तब गांव वालों में बेहद खुशी का माहौल था। आज पूरा गांव गम में डूबा है।
कलह कथा
अमित शाह का दौरा भी राजस्थान में भाजपा की अंदरूनी कलह का पटाक्षेप नहीं कर पाया। हां, एक पहलू जरूर नया था। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे उस प्रतिनिधि सम्मेलन में मौजूद रहीं जिसे अमित शाह ने जयपुर में संबोधित किया। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से वसुंधरा ने पार्टी के कार्यक्रमों से दूरी बना रखी थी। इतना ही नहीं, विरोधी खेमा उन पर पार्टी के समानांतर गतिविधियां चलाने का आरोप लगा रहा था। सूबेदार सतीश पूनिया से तो वसुंधरा की पटरी कतई नहीं बैठ पाई। पर अमित शाह के स्वागत में वसुंधरा पहुंची। उनके समर्थक लगातार पार्टी आलाकमान पर दबाव बना ही रहे हैं कि उन्हें 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी का मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया जाए।
आलाकमान इसके पक्ष में होता तो उन्हें पार्टी का राष्टÑीय उपाध्यक्ष बनाकर सूबे की सियासत से अलग क्यों करता। बहरहाल कांग्रेस के सूबेदार गोविंद सिंह डोटासरा ने यह बयान देकर भाजपा की अंदरूनी आग में घी डालने का प्रयास किया कि सतीश पूनिया से तो भाजपा मजदूरी करा रही है। मुख्यमंत्री का चेहरा तो वह गजेंद्र सिंह शेखावत को बनाएगी। डोटासरा और पूनिया दोनों जाट हैं। पिछले महीने वसुंधरा ने मेवाड़ क्षेत्र के छह जिलों का चार दिन का दौरा किया था। विरोधियों ने इसे उनकी समानांतर सक्रियता बताया, तो वसुंधरा ने धर्म यात्रा। वे मंदिरों में गईं और कोविड से मारे गए लोगों के घर भी। सफाई दी कि पुत्रवधू की लंबी बीमारी के कारण पहले नहीं मिल पाई थी।
पत्रकारों ने कुरेदा तो बोलीं- राजनीति में नहीं, मेरा भरोसा धर्मनीति में है। सांवलिया मंदिर से शुरू हुई यात्रा अजमेर में दरगाह शरीफ पर खत्म हुई। मुसलमानों में उनकी साख पार्टी के बाकी नेताओं की तरह कट्टर वाली नहीं है। वसुंधरा मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी खुद तो नहीं करतीं पर आलाकमान को भी यह फैसला करने का अधिकार नहीं देतीं। अक्तूबर में विरोधी खेमे के गजेंद्र सिंह शेखावत के घर जोधपुर गई थीं। उनकी मां के निधन पर शोक जताने। वहीं कह आई कि मुख्यमंत्री वह होगा जिसे जनता चाहेगी। अब देखना है, यह आगे क्या रूप लेता है।
सत्ता और इतिहास
हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल राजनीति में आने से पहले कालेज में पढ़ाया करते थे। वह अंग्रेजी के प्रोफेसर हुआ करते थे। लेकिन पिछले कुछ दिनों से इतिहास को लेकर सोशल मीडिया में ज्ञान देने लग गए हैं। वह टिप्पणियां कर रहे हैं कि इतिहासकारों ने आजादी का इतिहास सही नहीं लिखा है। इसे दोबारा से लिखने की जरूरत है। इसके अलावा भी वह अन्य जगहों में इतिहास को लेकर कुछ न कुछ कह ही देते हैं। यह ठीक है कि इन दिनों इतिहास को लेकर भाजपा भी इसी तरह की बात करती है। लेकिन धूमल की बात कुछ और है।
अब उनके साथ के प्रोफेसर कह रहे हैं कि धूमल तो अंग्रेजी के प्रोफेसर हुआ करते थे। वह इतिहास में कहां फंसे जा रहे हैं। ऐसे में उनके एक अन्य साथी जो दर्शनशास्त्र में पीएचडी हैं, कहते है कि जब कोई प्रोफेसर राजनीति में आ जाता है तो वह प्रोफेसर किसी भी विषय का क्यों न हो, सत्ता में आकर वह खुद को हर विषय का प्रोफेसर समझने लग जाता है। 2017 में चुनाव हार जाने के बाद धूमल को जयराम व उनकी मंडली ने पूरी तरह से हाशिए पर धकेला हुआ है। उनके साथी कह रहे हैं कि अच्छा होता अगर वह हाशिए से सत्ता के केंद्र में बैठने का कोई मंत्र जानते तो काम भी आता। अगर सत्ता नहीं है तो राजनीति में इतिहास और अंग्रेजी सब बेमानी है।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)