रघु ठाकुर

दरअसल, उनका यह कहना ईरान की उस बैचेनी की अभिव्यक्ति है, जो वहां के आम युवा के मन में घूम रही है। अब युवा लोकतंत्र चाहता है, मुक्त जीवन चाहता है, मजहब के नाम पर अमानवीय बंधनों से मुक्ति चाहता है। लगभग तीन महीने से अधिक चले इस आंदोलन ने ईरान और दुनिया के मनों को हिलाया-डुलाया और बड़ी हलचल पैदा कर दी है।

ईरान में 1979 का समय इस्लामिक बदलाव का दौर था। ईरान के पूर्व राष्ट्रपति, जो अमेरिका के समर्थक माने जाते थे, को हटाकर इस्लामिक गुरु खुमैनी का शासन स्थापित हुआ था। तत्कालीन ईरान के शाह ने काफी संपत्ति अमेरिका में जमा की थी और अमेरिका ने ईरान में काफी कारखाने आदि लगाए थे। कुछ अमेरिका की वजह से, कुछ राजनीतिक वजह से, कुछ इस्लामिक कायदे-कानून न होने की वजह से, ईरान के लोगों ने खुमैनी के नेतृत्व में व्रिदोह किया था। फिर ईरान में खड़ी की गई अमेरिकी संपत्ति को ईरान सरकार ने खुमैनी के नेतृत्व में जब्त किया था। तभी से ईरान में इस्लामिक राष्ट्र है और इस्लामिक धर्म गुरु के नियंत्रण में शासित है।

इस्लामिक क्रांति के चार वर्ष के बाद 1983 में ईरान में हिजाब पहनना अनिवार्य किया गया था। वैसे तो हिजाब पहनने की परंपरा इस्लामिक कानून में पहले से है। यह व्यवस्था थी कि अगर कोई महिला बुर्का नहीं पहन सकती है, तो वह हिजाब पहने। इस्लामिक धार्मिक गुरुओं का कहना था कि महिलाओं को बुर्का, हिजाब पहनना अल्लाह का आदेश है। इसका जिक्र कुरान में है और कुरान वह ईश्वरीय ग्रंथ है, जिसे हजरत मोहम्मद पैगंबर साहब के जरिए अल्लाह ने भेजा है।

दरअसल, यही दृष्टिकोण बदलाव और प्रगतिशील परंपराओं को रोकता और जड़ता को कायम रखता है। ये परंपराएं मजहब नहीं हैं, बल्कि इस्लाम के उदय के कालखंड में जो सामाजिक परिस्थितियां रही होंगी, उनमें इनकी उपयोगिता महसूस की गई होगी। जो भी हो, इन परंपराओं के कारण महिलाओं को एक प्रकार के कैद जैसे बंधनों में रखा गया और उन्हें बराबरी का मनुष्य नहीं माना गया। उनकी स्थिति एक बच्चा जनने जैसी बन गई तथा सात-आठ सौ साल के कालखंड में महिलाओं को मजहब के नाम पर भेदभाव सहना पड़ा। उनके घर से बाहर निकलने पर भी कई प्रकार की सीमाएं थीं।

1983 से लेकर पिछले लगभग तीस वर्षाें से ईरान की महिलाएं इस मजहब के नाम पर दमन चक्र में पिस रहीं थीं। छिटपुट आवाजें बीच-बीच में उठती थीं, पर उन्हें कठोरता से दबा दिया जाता था। ईरान की बेटियां इससे भीतर से आहत थीं। अंतत: उनके गुस्से का घड़ा फूटा और सितंबर 2022 में समूचे ईरान में महिलाओं द्वारा हिजाब विरोधी आंदोलन फैल गया।

ईरान की पुलिस ने बेटियों को गिरफ्तार करना शुरू किया और इसी पकड़ा-धकड़ी में महसा अमीनी नामक लड़की की मृत्यु पुलिस हिरासत में हो गई, जिसे पुलिस ने हिजाब का विरोध करने के कारण गिरफ्तार किया था। महसा अमीनी की मौत ने सारे ईरान की महिलाओं के मन में आक्रोश भर दिया और वे स्वयंभू प्रेरणा से राजधानी तेहरान से लेकर कस्बों तक हिजाब के विरोध में सड़कों पर निकल पड़ीं। हिजाब पहनने की अनिवार्यता वाले कानून को वापस लेने की मांग करने लगीं। खुमैनी की इस्लामी हुकूमत द्वारा स्त्रियों का जिस प्रकार दमन किया गया, वह अवर्णनीय है।

ईरान की महिलाओं का कुपरंपराओं को तोड़ने का आंदोलन एक अर्थ में गांधी के ‘सिविल नाफरमानी’ जैसा था। उसमें महिलाएं केवल कानून की सविनय अवज्ञा कर रही थीं, किसी ने भी कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया। पुलिस की लाठियों, हल्की प्लास्टिक की गोलियों, अपमानजनक शब्दों के प्रयोग को, ये महिलाएं शांतिपूर्ण ढंग से सहती और अपनी बात पर अडिग रहीं।

ईरान की इस्लामिक हुकूमत ने शरीअत कानून के आधार पर एक ‘नैतिक पुलिस’ शाखा बनाई है, जो इस्लामी कट्टर परंपराओं की रक्षा करती और प्रगतिशील सोच को दबाती है। इस नैतिक पुलिस, जिसे वहां ‘गश्त-ए-इरशाद’ कहा जाता है, ने चरम क्रूरता का प्रदर्शन किया। हालांकि इसके बावजूद आंदोलनकारी लड़कियों ने साहस नहीं छोड़ा। इन बच्चियों के ऊपर पैलेटगन से प्लास्टिक और धातु से बने छर्रे दागे गए, जो शरीर में घाव करते हैं।

कुछ समय बाद नौजवान भी महिलाओं के साथ आंदोलन में शामिल हो गए और ऐसा लगने लगा कि सारा युवा ईरान सड़कों पर उतर आया है। नैतिक पुलिस ने पूरी क्रूरता दिखाई। लड़कियों के चेहरों पर छर्रे चलाए गए, ताकि उनकी सुंदरता खत्म हो जाए। उनके निजी अंगों पर पैलेटगन दागी गई, जिससे उन्हें इलाज कराना भी शर्म की वजह से कठिन हो गया।

इतना ही नहीं, लगभग अस्सी लोगों को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई तथा ग्यारह लोगों को, जिनमें चार लड़कियां भी शामिल थीं, मृत्यु दंड दिया गया। बताया जाता है कि, इन विरोध प्रदर्शनों में सुरक्षा बलों की क्रूर कार्रवाई में पांच सौ से अधिक लोग मारे गए, जिनमें साठ बच्चे भी शामिल हैं। इसके बावजूद ईरान में 16 सितंबर 2022 से 2 दिसंबर तक लगभग सोलह सौ बड़े प्रदर्शन आयोजित हुए। ईरान इस्लामिक रिपब्लिक के ‘कमांडर इन चीफ’ होसैन अश्तरी ने आंदोलनकारियों को धमकी दी कि अभी तक हमने संयम बरता है, अब सख्ती बरतेंगे। यानी उनके लिए पैलेट गन चलाना और मृत्युदंड देना संयम की श्रेणी में आता है।

इस सबके बाद भी आंदोलन शांत नहीं हुआ। एक कृत्रिम खबर फैलाई गई कि सरकार ने नैतिक पुलिस को भंग करने का फैसला किया है तथा उनतालीस साल पुराने हिजाब कानून को बदला जाएगा। यह खबर आंदोलन को भ्रमित कर वापस कराने की थी, पर जब इसका भी असर नहीं हुआ, तो फिर शासन और पुलिस अपने मूल पर वापस आ गई। हालांकि इसके बावजूद महिलाएं और युवा अपने आंदोलन पर डटे रहे। कुछ महिलाओं ने अपने हिजाब जला दिए, कुछ ने बाल काट लिए और अहिंसक आंदोलन जारी रहा।

इसी बीच एक युवा समूह ने इस्लामिक राज्य के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी तथा कहा कि हम मजहबी राष्ट्र नहीं चाहते। दरअसल, उनका यह कहना ईरान की उस बेचैनी की अभिव्यक्ति है, जो वहां के आम युवा के मन में घूम रही है। अब युवा लोकतंत्र चाहता है, मुक्त जीवन चाहता है, मजहब के नाम पर अमानवीय बंधनों से मुक्ति चाहता है। लगभग तीन महीने से अधिक चले इस आंदोलन ने ईरान और दुनिया के मनों को हिलाया-डुलाया और बड़ी हलचल पैदा कर दी है।

लाठी, गोली, यातना सहते-सहते आंदोलन में कुछ थकान आई है, पर शासन की निष्ठुरता और हठधर्मिता ने एक निराशा भी उनके मन में भर दी है। आंदोलनकारियों का एक हिस्सा निराश होकर घरों की ओर लौटा है। उनके मन में घोर हताशा और कुंठा है। अब यह निराशा और कुंठा भविष्य में क्या रूप लेगी, इसकी कल्पना अभी कठिन है। पर इतना तो तय है कि अगर सरकार ने अपने प्रचारित वादों यानी नैतिक पुलिस को भंग करने, हिजाब कानून वापस लेने के कदम नहीं उठाए, तो फिर एक और दौर आंदोलन का सड़कों पर दिखेगा। यह भी संभव है कि, हताश और कुंठित युवा हिंसा की ओर मुड़ें या कोई और खतरनाक रास्ता चुनें।

दुनिया के एक बड़े हिस्से और आबादी ने प्रकट या अप्रकट रूप से इस आंदोलन को समर्थन दिया है। ईरान की युवा प्रगतिशीलता और कट्टर कानूनों के विरुद्ध चले आंदोलन ने वैश्विक सहानुभूति अर्जित की। प्रगतिशीलता बनाम कट्टरता का यह संघर्ष खुलकर या आंतरिक तौर पर सारी दुनिया में, कम से कम मानसिक तौर पर, फैल रहा है और उम्मीद है कि भविष्य में इस आंदोलन की राख के नीचे छिपी आग सारी दुनिया में कट्टरता के खिलाफ लड़ाई का मार्ग बनेगी। दरअसल, यह आंदोलन मजहब के खिलाफ नहीं, मजहब की मूल आत्मा को परंपराओं की कैद से मुक्ति दिलाने के लिए है। इसे धर्म-विरोधी नहीं, बल्कि धर्म-शोधक आंदोलन और ईरान की धरती से गांधी के सत्याग्रह का पुनर्जीवन मानना चाहिए।