हिंसा के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले साल एक हजार एक सौ नब्बे अरब डॉलर यानी 80 लाख करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा है। यह रकम-संपत्ति कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह नुकसान प्रति व्यक्ति के हिसाब से तकरीबन चालीस हजार रुपए से अधिक बैठता है। यह चौंकाने वाला खुलासा इंस्टीट्यूट फॉर इकॉनोमिक्स एंड पीस की रिपोर्ट में हुआ है। समझा जा सकता है कि पिछले एक दशक में हिंसा के दौरान सार्वजनिक संपत्ति और आमजन का कितना नुकसान हुआ होगा। रिपोर्ट के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो हिंसा से वर्ष 2017 के दौरान देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के नौ प्रतिशत के बराबर नुकसान हुआ है। अगर इस धनराशि को शिक्षा और सेहत पर खर्च किया जाता तो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल सकता था। यह रिपोर्ट एक सौ तिरसठ देशों के अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है। रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर भी रोशनी डाली गई है।

इसमें कहा गया है कि हिंसा से वैश्विक अर्थव्यवस्था को क्रय शक्ति क्षमता के संदर्भ में करीब पंद्रह हजार अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। यह जीडीपी का तकरीबन साढ़े बारह प्रतिशत है जो प्रति व्यक्ति दो हजार डॉलर होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मुख्यत: आंतरिक सुरक्षा खर्च में वृद्धि के कारण वैश्विक हिंसा का वैश्विक आर्थिक प्रभाव 2016 की तुलना में 2017 में दो प्रतिशत बढ़ा है। रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र कुछ गिरावट के बाद भी विश्व का सबसे शांत क्षेत्र बना हुआ है। यहां आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के संघर्षों और पड़ोसी देशों के मध्य संबंधों में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं, लेकिन हिंसक अपराध, आतंकवाद के प्रभाव और राजनीतिक अस्थिरता से स्थिति खराब हुई है।

दक्षिण एशिया क्षेत्र में अफगानिस्तान और पाकिस्तान दो सबसे खराब देश बने हुए हैं और इनकी स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। सीरिया इस दौरान जीडीपी के अड़सठ प्रतिशत नुकसान के साथ सबसे खराब देश रहा है। इसके बाद तिरसठ प्रतिशत के साथ अफगानिस्तान और इक्यावन प्रतिशत के साथ ईरान का स्थान है। रिपोर्ट पर नजर दौड़ाएं तो उभरते बाजारों वाले देशों के अंतर्गत हिंसा से चीनी अर्थव्यवस्था को सत्रह सौ अरब डॉलर, ब्राजील की अर्थव्यवस्था को छह सौ अरब और रूस को एक हजार अरब डॉलर का नुकसान हुआ। विकसित देशों की बात करें तो अमेरिका के मामले में हिंसा की लागत करीब तीन खरब आई है जो जीडीपी की आठ फीसद थी। ब्रिटेन के लिए यह लागत 312.27 अरब डॉलर थी, जो उसकी जीडीपी की सात प्रतिशत थी। शीर्ष दस खराब देशों में अल सल्वाडोर और दक्षिणी सूडान भी शामिल हैं। हिंसा से हुए नुकसान के मामले में बेहतर स्थिति स्विट्जरलैंड की रही है।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि रिपोर्ट में इस आकलन में हिंसा के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों समेत आर्थिक गुणात्मक प्रभाव को भी शामिल किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गुणात्मक प्रभाव उन अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों का भी आकलन करता है जो हिंसा के प्रत्यक्ष प्रभाव को टाल दिए जाने की सूरत में हो सकते थे। आर्थिक नजरिए से रिपोर्ट की समीक्षा करें तो उद्घाटित आंकड़े तथ्यपरक और प्रामाणिक हैं। इसलिए कि इंसान को नियमित तौर पर घर व साथियों के बीच रह कर काम करना पड़ता है और उनके बीच संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। अगर यह संघर्ष हिंसक रूप ले लेता है तो ऑफिस, कल-कारखाने इत्यादि बंद हो जाते हैं जिससे कामकाजी लागों को भारी आर्थिक नुकसान होता है।

भारत के संदर्भ में गौर करें तो यहां आए दिन जातीय, धार्मिक और राजनीतिक समूहों के बीच संघर्ष होता रहता है। यह सही है कि ज्यादातर संघर्ष हिंसा का रूप नहीं लेते, लेकिन कुछेक मामलों में हिंसा का स्वरूप इस कदर भयावह हो जाता है कि उससे सामाजिक ताना-बाना बिगड़ जाता है और धन-संपत्ति का भारी नुकसान होता है। यहां ध्यान देने वाली बात यह कि राजनीतिक दल अपने हित संवर्धन के लिए जाति और धार्मिक समूहों को उकसाते हैं जिससे हालात बदतर होते हैं। पिछले एक दशक के आंदोलनों पर नजर डालें तो अधिकांश आंदोलनों के पीछे राजनीतिक दलों का ही हाथ रहा है। कभी वे जातीय व धार्मिक मसलों को आगे कर जनता को भड़काते हैं, तो कभी भाषा और आरक्षण के सवाल पर अपनी रोटियां सेंकते हैं।

पिछले साल ही दार्जिलिंग में उस वक्त हिंसा भड़क उठी थी जब राज्य सरकार ने पहाड़ी इलाकों के स्कूलों में बांग्ला भाषा पढ़ाना अनिवार्य कर दिया था। इससे लोग भड़क उठे और जल्द ही यह आंदोलन गोरखालैंड राज्य की मांग में तब्दील हो गया। इस हिंसक आंदोलन में हजारों करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इसी तरह कुछ साल पहले हरियाणा में आंदोलन का जो रक्तरंजित चेहरा सामने आया था, उससे न केवल हरियाणवी समाज की एकता और भाईचारे को धक्का लगा, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंचा। आंदोलनकारियों ने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर अपने विरोधियों की दुकानों, मकानों व वाहनों को आग के हवाले कर दिया। इस आंदोलन में तीस से ज्यादा लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे।

एसोचैम की मानें तो इस हिंसक आंदोलन से हरियाणा को तकरीबन तीस हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ था। अगर यह धनराशि राज्य के विकास में लगी होती तो राज्य का भला हुआ होता। देखा गया कि आंदोलनकारियों ने रास्ता जाम करने के लिए हजारों पेड़ काट कर पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचाया। इसी तरह पिछले साल गुजरात के पाटीदारों ने आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन किया था। इससे निजी व सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा। इस हिंसक आंदोलन में साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ था। आंध्रप्रदेश के कापू समुदाय के लोगों ने भी आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन किया था। इससे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा। पिछले वर्ष ही मध्य प्रदेश में किसानों ने अपनी फसलों के मूल्य में वृद्धि को लेकर आंदोलन किया था, जिसमें कई किसान मारे गए थे और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था।

सर्वोच्च अदालत ने आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और हिंसा करने वालों के खिलाफ कड़ा कदम उठाने का निर्देश दिया था। अदालत का यह भी कहना था कि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक दलों और संगठनों को इस नुकसान की भरपाई करनी होगी। शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी गुजरात में हुए पाटीदार आंदोलन के नेतृत्वकर्ता हार्दिक पटेल की याचिका की सुनवाई के दौरान की थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि वह सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की जवाबदेही तय करने के मानक सुनिश्चित करने के साथ-साथ ऐसी गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई के लिए दिशा-निर्देश भी जारी करेगा। लेकिन विडंबना है कि सर्वोच्च अदालत की कड़ी फटकार के बाद भी हिंसक आंदोलन सामने आते रहते हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक और समुदाय को अपनी बात सकारात्मक ढंग से रखने और जनतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने का अधिकार है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे हिंसक आंदोलन के जरिए सार्वजनिक संपत्ति का दहन करें। यह भी स्वीकार्य नहीं कि कोई समाज या वर्ग अपनी मांगों को लेकर जनजीवन बाधित कर दे। समझना होगा कि हिंसक आंदोलनों से देश का सामाजिक ताना-बाना तो छिन्न-भिन्न होता ही है, अर्थव्यवस्था को भारी आघात पहुंचता है।