कुपोषण का वैश्विक प्रसार लगातार बढ़ रहा है। आर्थिक विकास के बावजूद भारत के सामने कुपोषण से लड़ने की बड़ी चुनौती है। सवाल यह है कि आजादी के पचहत्तर वर्षों के बाद भी भारत से कुपोषण जैसी समस्या को समाप्त क्यों नहीं किया जा सका है?

आजादी के पचहत्तर साल बीत जाने के बाद भी भुखमरी देश के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। जबकि बीते सात दशक से भारत इस समस्या को खत्म करने के प्रयास में लगा हुआ है। विकास के तमाम दावों के बावजूद हम अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के चपेट से बाहर नहीं निकल सका है। एक सौ तीस करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में आज भी स्थिति यह है कि खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बाजार में महंगाई की वजह से बहुत सारे लोगों के सामने खानेपीने की समस्या खड़ी हो गई है।

विश्व खाद्य उत्पादन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मजबूत आर्थिक प्रगति के बावजूद भुखमरी की समस्या से निपटने की रफ्तार बहुत धीमी है। वहीं संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है, जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है। इसके बावजूद करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं।

एक तरफ हम भारत की मजबूत आर्थिक स्थिति के बारे में विश्व भर में कसीदे पढ़ रहे हैं, लेकिन यह सच है कि इतने सालों की आजादी के बाद भी हम जमीनी स्तर पर कुछ बुनियादी समस्याओं से भी पार नहीं पा सके हैं। बढ़ते भुखमरी के आंकड़ों के चलते 2030 तक भुखमरी हटाने का अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य भी अब खतरे में पड़ गया है।

यह कितना दुखद है कि संयुक्त राष्ट्र अपनी रिपोर्ट में भुखमरी के कारणों को अघोषित युद्ध की स्थिति, जलवायु परिवर्तन, हिंसा, प्राकृतिक आपदा जैसे कारणों की तो बात करता है, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था, बाजार का ढ़ांचा, नवसाम्राज्यवाद और नव उदारवाद भी एक बड़ी वजह है, इस पर संयुक्त राष्ट्र अपनी खामोशी बनाए रखता है, जबकि यह अत्यंत गंभीर मुद्दा है। ऐसी हालत क्यों है कि आज भी दुनिया की कुपोषित आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा भारत में रहता है और वैश्विक भुखमरी सूचकांक (2021) में भारत 101वें स्थान पर रहता है।

बढ़ते भू-राजनीतिक संघर्ष, वैश्विक जलवायु परिवर्तन से जुड़े मौसम की चरम सीमा और महामारी से जुड़ी आर्थिक एवं स्वास्थ्य चुनौतियां भुखमरी के स्तर को बढ़ा रही हैं। कुपोषण का वैश्विक प्रसार लगातार बढ़ रहा है। आर्थिक विकास के बावजूद भारत के सामने कुपोषण से लड़ने की बड़ी चुनौती है। सवाल यह है कि आजादी के पचहत्तर वर्षों के बाद भी भारत से कुपोषण जैसी समस्या को समाप्त क्यों नहीं किया जा सका है? हालांकि आजादी के बाद से भारत में खाद्यान्न के उत्पादन में पांच गुना वृद्धि हुई है, पर कुपोषण का मसला चुनौती बना हुआ है।

कुपोषण की समस्या खाद्यान्न की उपलब्धता न होने के कारण नहीं है, बल्कि आहार खरीदने की क्रयशक्ति कम होने के कारण है। गरीबी के कारण क्रयशक्ति कम होने और पौष्टिक आहार की कमी के कारण कुपोषण जैसी समस्याएं बढ़ने लगती हैं। परिणामस्वरूप लोगों की उत्पादन क्षमता कम होने लगती है, जिससे लोग निर्धनता एवं कुपोषण के चक्र में फंसने लगते है।

हालांकि बीते चालीस साल के दौरान भारत में बहुत से पोषण कार्यक्रम चलाए गए। वर्ष 2000 के बाद से भारत ने इस क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है। लेकिन अभी भी बाल पोषण चिंता का मुख्य क्षेत्र बना हुआ है। इसी बीच जलवायु परिवर्तन न सिर्फ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है, बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। इसका सीधा असरपोषण पर पड़ता है।

यह सही है कि दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या में कमी आई है। फिर भी विश्व में आज भी कई लोग ऐसे हैं, जो भुखमरी से जूझ रहे हैं। विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब अस्सी फीसद लोग विकासशील देशों में रहेंगे। एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वे भुखमरी से जूझते हैं।

कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है। दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है। अगर अपने देश की बात करे तो यहां भी केंद्र व राज्य सरकारें खाद्य सुरक्षा और भुखमरी की संख्या में कमी के लिए तमाम योजनाएं चला रही हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इसके खास परिणाम नजर नहीं आ रहे हैं। इस पर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, मगर इनका पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पाता है। जबकि सियासत दशकों से मुफ्त रोजगार, सस्ता खाद्यान्न देकर वोट खरीदती रही है।

बहरहाल, वैश्विक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारत के गरीबी, भुखमरी व स्वच्छता में पिछड़ने के कारण कई सवाल तो उठते ही हैं। इससे देश के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती पहाड़ बनकर खड़ी हो गई है, जिसके कारण दुनिया के सामने देश की तस्वीर धुंधली हो जाती है। जबकि भूख से बचाव यानी खाद्य सुरक्षा की अवधारणा एक बुनियादी अधिकार है, जिसके तहत सभी को जरूरी पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण भोजन उनकी जरूरत के हिसाब, समय पर और गरिमामय तरीके से उपलब्ध करना किसी भी सरकार का पहला दायित्व होना चाहिए।

भारत में इस स्थिति के कई कारण हैं। इसमें बेतहाशा बढ़ती गरीबी, महिलाओं की खराब स्थिति, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का बुरा प्रदर्शन, पोषण के लिए जरूरी पोषक तत्त्वों का निम्न स्तर, लड़कियों की निम्नस्तरीय शिक्षा और नाबालिग विवाह जैसे कारण भारत में बच्चों में कुपोषण बढ़ाने के कारण हैं। भारत की यह विरोधाभासी छवि वाकई सोचने को बाध्य कर देती है।

बुलेट ट्रेन का सपना संजोते देश ने दूसरे देशों के उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने की क्षमता तो अर्जित कर ली, लेकिन वह भुखमरी के अभिशाप से मुक्त नहीं हो सका। देश में भुखमरी मिटाने पर जितना धन खर्च हुआ, वह कम नहीं है। केंद्र सरकार के प्रत्येक बजट का बड़ा भाग आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए आबंटित रहता है, लेकिन इसके अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिलते।

ऐसा लगता है कि प्रयासों में या तो प्रतिबद्धता नहीं है या उनकी दिशा ही गलत है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत की जनसंख्या अभी 1.04 फीसद की सालाना दर से बढ़ रही है। 2030 तक जनसंख्या 1.5 अरब तक पहुंचने का अनुमान है, लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरने के लिए खाद्यान उत्पादन में अनेक समस्याएं होंगी।

जलवायु परिवर्तन न सिर्फ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है, बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच आने वाले समय में इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरने के लिए तैयार है?

वक्त और विकास के साथ भूख भी बढ़ रही है, लेकिन ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता, जिससे भूख से दीर्घकालिक निजात दिलाने का वादा हो। भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है, जब इस लड़ाई में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ वैश्विक संगठन अपने अपने कार्यक्रमों को और प्रभावी और बेहतर ढंग से लागू करें। साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि से भी है। इसलिए इन मोर्चों पर भी एक मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। हमने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण को ही विकास का बुनियादी आधार मान लिया है और इस अंधी दौड़ में अधिकार कहीं कोने में दुबके नजर आते हैं।