ज्योति सिडाना

विश्वास के संकट के कारण ही लोग व्यक्तियों से ज्यादा मशीनों पर भरोसा करने लगे हैं। लेकिन लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि जब से उन्होंने मनुष्य की जगह मशीनों को चुना है, तब-तब प्रकृति को चुनौती दी है। जब प्रकृति को चुनौती मिलती है तो वह कितना विकराल रूप ले सकती है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

आज की दुनिया में वास्तविक और भ्रम के बीच अंतर करना उतना ही कठिन हो गया है, जितना दूध से पानी को अलग करना। डिजिटल क्रांति ने मानव समाज को इतना कृत्रिम बना दिया है कि सच या झूठ, यथार्थ या आभासी, वास्तविक या परछाई में अंतर ही नहीं किया जा सकता। इस कृत्रिम मशीनी समाज में रहते हुए मनुष्य भी खुद को मशीन समझने लगा है।

जिस तरह से मशीन में भावनाएं नहीं होतीं, उसी तरह अब मनुष्य भी भावना रहित हो गया है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके आसपास क्या हो रहा है, परिवार के युवा, बुजुर्ग या फिर बच्चे किन तनावों से गुजर रहे हैं, समाज या देश किन समस्याओं से जूझ रहा है, क्योंकि वे तो केवल आभासी दुनिया की सैर में व्यस्त रहते हैं। एक ऐसी काल्पनिक दुनिया, जिसमें वह सब करना संभव है जो वास्तविक दुनिया में करना संभव नहीं होता।

उदविकासवादी मानते हैं कि समाज और संस्कृति का विकास विभिन्न चरणों से होकर गुजरा है और प्रत्येक अगला चरण पहले चरण से अधिक विकसित होता गया। हम जंगली अवस्था से बर्बर अवस्था और फिर बर्बर अवस्था से सभ्य अवस्था की ओर बढे। यानी प्रथम चरण में मनुष्य पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था। वह अपनी हर आवश्यकता को प्रकृति से पूरा करता था और स्वस्थ और खुश रहता था।

फिर बर्बर अवस्था में वह मानव निर्मित परिवेश का हिस्सा बना और तीसरे चरण में उच्च और विकसित तकनीक के प्रयोग ने उसके जीवन को ही मशीन में बदल दिया। आज मनुष्य मशीन को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि मशीन मनुष्य को नियंत्रित करने लगी है। नतीजतन, आज कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) स्वाभाविक बुद्धि पर हावी होती जा रही है।

कृत्रिम बुद्धि के वर्चस्व का ही नतीजा है कि कुछ समय पूर्व एक्टोलाइफ नामक कंपनी के एक वीडियो में यह दावा किया गया कि अगर किसी महिला को स्वास्थ्य कारणों से गर्भाशय निकलवाना पड़ा तो उसे अब तनाव की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि इसके बावजूद वे मां बन सकेंगी। या फिर कोई पुरुष नपुंसकता से पीड़ित है तो भी उसकी पत्नी मां बन सकेगी। अगर उस वीडियो के जरिए भावी दुनिया के संकेत समझें तो कृत्रिम गर्भाशय में बच्चा कृत्रिम बुद्धिमत्ता की निगरानी में नौ महीने तक रहेगा।

यानी अगर सचमुच संभव हुआ तो अब बच्चे को जन्म देने के लिए इंसानी कोख की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि मशीन महिला के गर्भ की तरह ही सुरक्षित होगी और वह एक स्वाभाविक गर्भ की तरह ही काम करेगी। खबरों के मुताबिक, कृत्रिम बुद्धि आधारित अभिभावकीय बाजार पूरी दुनिया में अभी करीब 5,238 करोड़ रुपए के पार जा चुका है। वर्ष 2028 में इसके करीब तेरह हजार करोड़ रुपए के होने की उम्मीद है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि बाजार में हर रिश्ता, हर भावना अब बिकाऊ है। या कहें कि भावनाओं का बाजार वस्तुओं के बाजार पर भारी होता जा रहा है। एक मशीन (कृत्रिम कोख) के लिए यह दावा करना कि वह बच्चे के लिए ‘तीसरे अभिभावक’ की भूमिका निभाएगी, बच्चे की जिंदगी में आ रही जिन मुश्किलों को अभिभावक नहीं समझ पाते, उन्हें यह यंत्र (पेरेंटाफ नमक ऐप) समझने में मदद करेगी, कितना विरोधाभासी प्रतीत होता है। जिस मशीन को खुद मनुष्य ने तैयार किया, जिसमें सारा डेटा खुद मनुष्य ने भरा, वही यंत्र मनुष्य की बुद्धि और सामर्थ्य को चुनौती दे रही है। यह चिंता का विषय भी है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि डिजिटल दुनिया से पहले भी लोगों को समस्याएं और चुनौतियां मिलती थी और वे अपनों से अधिक अनुभवी लोगों की सहायता से उन परेशानियों का सामना करते थे। यहां तक कि बच्चे के पैदा होने के बाद उसकी देखभाल कैसे की जाए, उसे खाने के लिए क्या दिया जाए, बच्चे का टीकाकरण कैसे और कब कराया जाए, आदि सभी सवालों के जवाब के लिए कृत्रिम बुद्धि की सहायता से ‘जननी’ नामक एक ऐसा वाट्सऐप मंच बना है जो नई पीढ़ी के अभिभावकों की मदद करता है।

सवाल है कि अब ऐसा क्या हो गया कि मनुष्य कृत्रिम दुनिया में जीने को बाध्य हो गया है। आखिर क्यों परिवार की भूमिका का निर्वाह मशीनों को हस्तांतरित किया जा रहा है? शायद समाज और परिवारों में उत्पन्न संकट की स्थिति इसके लिए जिम्मेदार है। दादी-नानी और चाची-मौसी की भूमिका अब बाजार निर्मित उपकरणों या संस्थाओं ने ले ली है।

परिवार का आकार सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना छोटा हो गया है कि उसमें से अनेक रिश्ते अब गायब हो गए हैं। लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि उनके लिए परिवार का मतलब केवल पति-पत्नी और उनके बच्चे हैं। वैसे दादा-दादी या चाचा-चाची अब साथ नहीं रहते। अगर रहते भी हैं तो यह नई पीढ़ी के अभिभावक और बच्चे अब उन्हें पहले की तरह समय और महत्त्व नहीं देते, बल्कि उन्हें बोझ समझते हैं।

यहां तक कि अनेक बार घर के बुजुर्गों के साथ समायोजन नहीं कर पाने के कारण या उनकी सेवा करने से बचने के कारण उन्हें वृद्ध आश्रम छोड़ आते हैं, क्योंकि बुजुर्ग पीढ़ी के सुझाव इस नई पीढ़ी को अब रोक-टोक लगते हैं। नई पीढ़ी को लगता है कि बुजुर्गों का काम अब तकनीक से लिया जा सकता है और वह बुजुर्गों की तरह कोई रोक-टोक या सवाल-जवाब भी नहीं करती और न ही जबरदस्ती की सलाह देती है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि जिस व्यवस्था का कोई विकल्प मिल जाता है. फिर उसको बदलने में लोग नहीं हिचकते। यही कारण है कि आज के समय में समाज में वृद्धाश्रमों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है।

पर यह भी सच है कि जब से परिवारों के आकार छोटे हुए हैं या परिवार संस्था का विघटन हुआ है, लोगों का एक दूसरे पर विश्वास कम हुआ है, लोग स्वार्थ केंद्रित हुए हैं, समूह हित का स्थान व्यक्तिगत हितों ने ले लिया है। समाज में हर तरफ चाहे निजी संबंध हो, राजनीति हो, अर्थव्यवस्था हो, बिखराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस विश्वास के संकट के कारण ही लोग व्यक्तियों से ज्यादा मशीनों पर भरोसा करने लगे हैं।

लेकिन लोग यह कैसे भूल जाते हैं कि जब से उन्होंने मनुष्य की जगह मशीनों को चुना है, तब-तब प्रकृति को चुनौती दी है। जब प्रकृति को चुनौती मिलती है तो वह कितना विकराल रूप ले सकती है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। आदिम युग से आज के उत्तर-आधुनिक या डिजिटल युग तक मनुष्य के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान ही मुख्य आवश्यकताएं हैं।

उसके अलावा जीवन को स्वस्थ और खुशहाल बनाने के लिए सामाजिक संबंधों का सहज होना, उनमे विश्वास और प्यार होना जरूरी है जो इस मशीनी युग में कहीं खो गया है। लेकिन लगता नहीं है कि किसी को भी इसकी चिंता है। यह सच है कि पूर्व के समाजों की तुलना में वर्तमान दौर में लोगों के पास अनेक विकल्प उपलब्ध हैं, जिनके आधार पर वे अपने जीवन को आकार देने में सक्षम हुए हैं। आज बच्चों के पालन-पोषण से लेकर अनेक जरूरी काम स्वचालित मशीनें या रोबोट कर देते हैं। फिर मानव समाज में मानवीय संबंधों और भावनाओं की जरूरत ही कहां रह जाती है।

लोगों को यह समझना होगा कि जीवनशैली में बदलाव के अनेक विकल्प हो सकते हैं, लेकिन सामाजिक संबंधों, भावनाओं और परिवार का कोई विकल्प नहीं हो सकता और मशीनें तो बिल्कुल नहीं। अगर समय रहते सामाजिक संबंधों के महत्त्व को नहीं समझा तो यह कथन कि ‘विकसित मस्तिष्क के कारण मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ है’, गलत साबित हो जाएगा।

एक तरफ व्यक्ति वास्तविक संबंधों की उपेक्षा कर रहा है और दूसरी तरफ आभासी और कृत्रिम संबंधों की तलाश में वास्तविक जीवन जीना ही छोड़ने को आतुर है। आज जब नौ महीने कोख में रखने वाली मां से संबंध तोड़ने या उसे उपेक्षित करने में ही बच्चे नहीं हिचकते, तो कृत्रिम कोख में पलने वाले बच्चे को अपनी मां से और मां को अपने बच्चे से कितना और कैसा लगाव होगा। बाजार केवल लाभ देखता है, भावनाएं नहीं।