बुनियादी सवाल यह है कि प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों से उनके अधीनस्थ अधिकारी और कर्मचारी शालीनता और सद्भाव की अपेक्षा करते हैं और जब उन्हें विपरीत आचरण झेलना पड़ेगा तो आखिर उस दायित्व पुंज का भविष्य क्या होगा, जिसमें दोनों को मिलजुल कर लक्ष्य को पाना है।

लोक कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में लोक प्रशासन की गहन भूमिका स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से निरूपित की गई है। इस निमित्त राष्ट्रीय स्तर पर अखिल भारतीय सेवाओं के साथ-साथ राजस्व, तकनीकी और अभियंत्रण सेवाओं का गठन कर संघ लोक सेवा आयोग को महती जिम्मेदारी दी गई कि वह योग्य अधिकारियों का चयन करे।

इसी प्रकार देश के हर राज्य में भी लोक सेवा आयोग का गठन करके उन्हें विभिन्न श्रेणी के राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए प्राधिकृत किया गया। हर राज्य के जिले में इसके कप्तान के रूप में जिला कलेक्टर हैं, जिनके मातहत सभी विभागों के प्रशासनिक और गैर-प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की एक वृहद शृंखला निर्धारित है।

प्रांत के मुख्यालय में सरकार के सबसे उच्च स्तरीय संगठन सचिवालय को राज्य के सर्वांगीण विकास और जन कल्याण सहित विधि व्यवस्था के कार्यों के लिए योजना निर्माण और इसके कुशल कार्यान्वयन की समीक्षा-सह-अनुश्रवण की जिम्मेदारी दी गई है, जहां अपने क्षेत्रीय कर्तव्यों के वृहद अनुभव से लैस भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी पदसोपानीय क्रम में विभागाध्यक्ष घोषित हैं।

ये अधिकारी अपनी टीम के साथ राज्य सरकार के द्वारा संचालित परियोजनाओं के लिए जिम्मेवार माने जाते हैं। किसी भी सरकार के कार्यों एवं दायित्वों के परिचालन के लिए निर्धारित की गई संरचनाओं और नियमों को समग्र रूप से हम नौकरशाही के नाम से भी जानते हैं। नौकरशाही की प्रमुख विशेषताओं में कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच अच्छी प्रकार से परिभाषित प्रशासनिक कार्यों का विभाजन, कर्मियों की भर्ती और उनके करिअर की सुव्यवस्थित और तर्कसंगत तंत्र सह अधिकारियों में पदानुक्रम, शक्ति, अधिकार, कर्त्तव्य आदि का समुचित वितरण किया गया है।

नौकरशाही कार्मिकों का वह समूह है, जिसपर प्रशासन का केंद्र आधारित है। प्रत्येक देश का शासन और प्रशासन इसी के इर्दगिर्द घूमता है। इसे जहां अपने अधिक सकारात्मक कार्यों में कुशलतापूर्वक दायित्व निर्वहन में निपुण माना जाता है, वहीं इसके कुछ हिस्से नकारात्मक अर्थों में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, पक्षपात, अहंकार और आभिजात्य मन:स्थिति के लिए भी मशहूर हैं। इसका नैतिक असर प्रशासनिक क्षितिज के साथ-साथ जनमानस में भी एक असंतोष की लंबी रेखा खींच देता है, जिससे सकारात्मक कार्य करने वाले नौकरशाह के मानस पटल को भी निराशा की तरंग से अप्रत्यक्ष तौर पर भर देने में कमी नहीं करता।

लोक प्रशासन की स्थापना के पूर्व कालखंड में समाज में मानव प्रशासन की एक गुणात्मक विधा व्याप्त थी, जहां कोई उपाधि या डिग्री के बगैर जीवन कार्यों के संचालन के समस्त उपबंध मौजूद थे। परंपरागत मूल्यों के संवाहक और पालक हमारे पूर्वज हुआ करते थे, जिनके कुशल सह कठोर अनुशासन व्यवस्था से समाज में शांति, सद्भाव और समन्वय की शीतल त्रिवेणी प्रवाहित हुआ करती थी। आज हमारे कदम एक ओर चांद और मंगल ग्रहों की यात्रा कर चुकी है तो विज्ञान की प्रगति ने अनेक द्वार भी खोल दिए हैं।

बीते कुछ समय में अनेक राज्यों से ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं जो मानवीय चेतना को झकझोर कर रख देती हैं। बिहार राज्य के शीर्ष प्रशासनिक हल्के से दो ऐसे वाकए सुनने को मिले, जिससे बौद्धिक वर्ग हैरान तो हुआ ही, साथ ही पूरे प्रदेश में इसे असहज दृष्टि से देखा गया। राज्य मुख्यालय के अखिल भारतीय स्तर के दो पदाधिकारियों ने अपने अधीनस्थ अधिकारियों के साथ उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। एक अधिकारी ने तो अपशब्दों तक का इस्तेमाल किया। इन दो घटनाओं ने पूरे प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक महकमे को आंदोलित कर दिया। एक मामला पटना उच्च न्यायालय तक पहुंच गया।

बुनियादी सवाल यह है कि प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों से उनके अधीनस्थ अधिकारी और कर्मचारी शालीनता और सद्भाव की अपेक्षा करते हैं और जब उन्हें विपरीत आचरण झेलना पड़ेगा तो आखिर उस दायित्व पुंज का भविष्य क्या होगा, जिसमें दोनों को मिलजुल कर लक्ष्य को पाना है। सामाजिक ताने-बाने के सूत्र कहते हैं कि शब्द ब्रह्म स्वरूप हैं।

किसी चूक से घायल जिह्वा के घाव भर तो जाया करते हैं, लेकिन उसी जिह्वा से निकले अपशब्द से घायल व्यक्ति के घाव कभी नहीं भरते। शब्दों की शक्ति अगाध और असीम है जो समाज में शांति भी स्थापित करती है और अशांति का दौर भी लाती हैं। हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी के लिए सेवा आचरण अनुशासनिक नियमावली बनी हुई है, जिसकी परिधि से वे सभी बंधे हुए हैं। किसी भी कर्मचारी या अधिकारी जो अपने कर्तव्य पालन में शिथिल या अकर्मण्य है, उसके विरुद्ध सेवा संहिता के विभिन्न धाराओं के अनुसार चरणबद्ध ढंग से कई कारवाई वर्णित हैं।

इस प्रकरण में उनके विरुद्ध लघु और वृहद दंड का प्रावधान भी निरूपित है। प्रत्येक शीर्ष अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह टीम के नेतृत्वकर्ता की हैसियत से अपने अधीनस्थों से कुशल और सौम्यता के साथ पेश आए। जब कोई अधिकारी या कर्मचारी सरकारी नियमों के विरुद्ध आचरण अपनाता है तो उससे स्पष्टीकरण पूछते हुए विभागीय कारवाई की जा सकती है। उक्त कारवाई में उसकी प्रोन्नति बाधित करना, वार्षिक वेतनवृद्धि रोकना और सेवा से मुक्त करने जैसे कठोर नियम बने हुए हैं। प्रशासन पदसोपान के नियंत्रण पदाधिकारियों को जब अपने अधिकार क्षेत्र में इतनी बड़ी शक्ति प्राप्त है तो उन्हें अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।

1980 के दशक में शीर्ष अधिकारियों में से इक्का-दुक्का ही शालीनता की सीमा पार करते थे, लेकिन तुरंत वे इसके लिए अधीनस्थ से खेद प्रकट कर मामले को आगे बढ़ने से रोक लेते थे। एक संदर्भ यह है कि 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने अपनी मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक में उपस्थित अपने सभी मंत्रियों से संबंधित विभाग के प्रधान अधिकारियों के साथ अत्यंत शालीनता से व्यवहार करने का निर्देश दिया था।

उनका यह निर्देश राज्य प्रशासन के गलियारे में सात्विक और प्रशंसनीय चर्चा का विषय बना था। कालांतर में यह संदेश प्रशासनिक क्षेत्रों में कारगर हुआ भी, लेकिन बाद के दौर में कुछ बड़े अधिकारियों ने अपने रोब से प्रशासनिक परिस्थिति में प्रतिकूलता का प्रवेश करा दिया। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि लोकतंत्र में उच्च ओहदे पर बैठे अधिकारियों को संयत भाषा का इस्तेमाल करते हुए अशिष्टता से बचना चाहिए, क्योंकि वे जहां हैं, जनमानस बड़ी बारीकी से उनकी प्रशासनिक गतिविधियों पर अपनी पैनी नजर रखे हुए है। लोहिया ने चिंतित मन से यह भी कहा था कि कुछ उच्च स्तरीय नौकरशाही अपना काम जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ नहीं करके हजारों लोगों का रोजाना मनोबल तोड़ती है।

यों बिहार ही नहीं, बल्कि देश के करीब सभी राज्यों में कुछ नौकरशाहों की ऐसी मानसिकता से साफ पता चलता है कि उनके रवैए में सुधार की जरूरत है। ऐसी श्रेणी के अधिकारी को अपनी पूरी सेवा में विवादों में घिरा रहना, एक जगह ठीक से नहीं टिकना सरकार के लिए सिरदर्द तो है ही, साथ ही उनका आचरण प्रशासनिक परिधि में चिंताजनक हालात उत्पन्न कर रहा है।

जरूरत इस बात की है कि असंयमित भाषा से ग्रस्त शीर्ष अधिकारियों के विरुद्ध सेवासम्मत कार्रवाई हो। केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय को भी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के प्रशिक्षण प्रकल्पों पर भी संशोधन करने पर विचार करना चाहिए, अन्यथा प्रशासनिक अराजकता के आगोश में एक दिन पूरे तंत्र के आ जाने का खतरा बना रहेगा।