साम्राज्यवाद के पतन के बाद जितने भी देश स्वतंत्र हुए, उनमें से अधिकांश नें प्रजातांत्रिक प्रणाली को अपनाने का निश्चय किया। यह लोगों में समता, समानता, स्वायत्तता, पारदर्शिता आदि सभी को मानवीय गरिमा प्रदान करने जैसे अनेक आकर्षण प्रस्तुत करता था। इसमें समाज के उन लोगों को आशा की नई किरण दिखाई दी थी जो सदियों से किसी न किसी थोपे गए भेदभाव के कारण सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से अपने ही लोगों द्वारा पीछे धकेल दिए गए थे। इसमें रंगभेद, लिंगभेद, जातिभेद, अस्पृश्यता, नस्लभेद और न जाने क्या-क्या आधार बनाए गए थे। आज इनमें से अधिकांश अस्वीकार्य घोषित कर दिए गए हैं। लेकिन पिछले साठ-सत्तर वर्षों में अनेक देशों में प्रजातंत्र कमजोर हुआ है। भारत इस मामले में भाग्यशाली रहा है। यहां संसद में एकमत से हारने वाली सरकार भी बिना किसी न-नुकुर के सत्ता से हट जाती है।

भारत की संस्कृति में प्रजातंत्र का भाव हजारों साल से उपस्थित रहा है। मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ भारत की राजधर्म पालन की परंपरा को स्पष्ट दर्शाती है। सम-सामयिक प्रजातंत्र को अपेक्षित स्वरूप प्रदान करने में यह विरासत अपना योगदान देती रही है। प्रजातांत्रिक देशों में राजनीतिक उथल-पुथल अनपेक्षित नहीं कही जाएगी। सफल प्रजातंत्र में अपेक्षा तो यही होगी कि इसमें भाग लेने वाले, विभिन्न विचारधाराओं और मतों के पक्षधर पारस्परिक और संसदीय व्यवहार में शालीनता, सद्भाव, संयम और संवाद में अपना विश्वास केवल बनाए रखें। संसदीय प्रणाली के व्यावहारिक रूप में यह पक्ष और विपक्ष के रूप में अपना कार्य करता है। विपक्ष के नेता को मंत्री-स्तर की मान्यता और अधिकार मिलते हैं।

सभी माननीय सांसद देश के लिए नीतियां, नियम और कानून बनाते हैं। सारा देश, विशेषकर युवा पीढ़ी उसकी ओर देखती है, उनके आचार-विचार-व्यवहार का सूक्ष्म अवलोकन और निरीक्षण करती है और उनका अनुकरण करने को उद्धृत रहती है। ऐसे में यदि संसद और सांसदों, विधान सभाओं के सदस्यों तथा पंचायत के ‘पंच परमेश्वरों’ की साख में कमी आए, सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच का व्यवहार शालीनता पूर्ण और पारस्परिक सम्मान का न हो, तो सारे देश को चिंता तो करनी ही होगी। इसे यह कह कर छोड़ा नहीं जा सकता है कि ऐसा तो अनेक वर्षों से हो रहा है, यह नहीं बदलेगा!

जनतंत्र में मुख्यत: जन प्रतिनिधि ही परिवर्तन के संवाहक होने चाहिए। वे ही सार्थक और स्वीकार्य परिवर्तनों को गति प्रदान कर सकते हैं, पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े बापू के अत्यंत प्रिय वर्ग के जीवन को मानवीय गरिमा प्रदान कर सकते हैं, विकास की हर अवधारणा और उसके लिए निर्मित हर योजना-परियोजना को ऐसी दिशा दे सकते हैं, जिसमें इस वर्ग का विशेष ध्यान रखा जाए। भारत का संविधान इस अपेक्षा की पुष्टि करता है।

उसके निर्माताओं को ज्ञात था कि यह सब तभी संभव होगा जब शिक्षा सभी तक पहुंचे। विभाजन के बाद का खंडित भारत संसाधनों की घोर कमी और गरीबी से जूझ रहा था। यह जानते-बूझते हुए भी संविधान में राज्य यानी सरकार से इस अपेक्षा को निहित किया गया कि चौदह साल तक की आयु के हर बच्चे को अगले दस वर्षों में (1960) तक कक्षा आठ तक की अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था की जाए। उस समय भी विश्व तेजी से बदल रहा था, साम्राज्यवाद अंतिम सांसे ले रहा था। विकास और प्रगति की नई परिभाषाएं उभर रही थीं। जिनके साम्राज्य समाप्त हो रहे थे, उनकी अपनी समस्याएं उभर रही थीं। नए स्वतंत्र हुए देशों में तो सदियों के शोषण से उत्पन्न समस्याएं भयावह रूप में सामने खड़ी थीं।

महात्मा गांधी जीवन पर्यंत शिक्षा के महत्त्व को न केवल समझाते रहे थे, वे उसे भारत के लोगों के लिए उपयुक्त और आवश्यक स्वरूप देने के लिए लगातार प्रयोग और प्रयास करते रहे थे। जब संविधान बन रहा था, तब उनकी छत्रछाया में पले-बढ़े राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा यह समझ लिया गया था कि भविष्य जिस भविष्यवाणी को साकार अवश्य करेगा वह यह कि आगे के साम्राज्य ज्ञान के साम्राज्य होंगें। अत: ज्ञान संपदा की वृद्धि, भंडारण और उपयोग के लिए किए जाने वाले प्रयासों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आधार होगा- शिक्षा का सार्वजनीकरण। दस वर्ष वाले संविधान-निहित लक्ष्य तो हम आज भी प्राप्त नहीं कर सके हैं, लेकिन अठारह फीसद साक्षरता से चल कर अस्सी फीसद को छूने की स्थिति में पहुंच पाना अपने आप में बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी और वह भी तब जब आबादी साढ़े तीन गुना बढ़ी हो।

भारत के युवाओं ने न केवल देश में, वरन विदेश में भी अपनी बौद्धिक क्षमता की श्रेष्ठता को प्रदर्शित किया है। भारत के पास अनुभव, ज्ञान, समझ और प्रतिभा है, जिसका सदुपयोग, पोषण और प्रवर्धन करना है ताकि उसका सकारात्मक प्रभाव वैश्विक स्तर तक अपनी आभा बिखेर सके। यह असंभव नहीं है यदि भारत के नौजवानों को अपने आत्मविश्वास को और अधिक बढ़ाने तथा अपने विचारों व संकल्पनाओं का क्षितिज बढ़ाने की प्रेरणा स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दी जा सके। यह भी आवश्यक है कि संस्थाओं के बाहर भी उन्हें हर तरफ ऐसे लोग ही दिखाई दें, जो अपने त्याग, सेवा, कर्मठता, ईमानदारी तथा वेदाग चरित्र के लिए जाने जाते हों।

मानवीय मूल्यों के ह्रास के कारण युवा वर्ग के समक्ष असमंजस की अनेक स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। वे इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक में प्रगति और विकास के सकारात्मक पक्ष तो देख ही रहे हैं, साथ ही यह भी देख रहे हैं कि इस विकास यात्रा के नकारात्मक पक्ष अब मनुष्य जाति के समक्ष भयावह रूप में प्रगट हो चुके हैं। सन 1909 में गांधी जी ने पश्चिम की सभ्यता के नकारात्मक पक्षों से आगाह किया था, मगर उस ओर अपेक्षित ध्यान देना आवश्यक नहीं माना गया, क्योंकि विज्ञान की प्रगति और तकनीकी के विकास से मानव जाति के नीति निर्धारक और नियंता इतने अभिभूत थे कि उन्होंनें हर तरफ हो रहे परिवर्तन का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर स्वीकार्य और अस्वीकार्य पक्षों को अलग कर देखा ही नहीं।

पिछले सौ वर्षों से परिवर्तन और प्रगति एक साथ ही चर्चित होते हैं। परिवर्तन हर ओर दिखाई देता है, लेकिन हर परिवर्तन प्रगति का द्योतक नहीं होता। प्रगति और विकास की वही अवधारणाएं अधिक सफल रही हैं जिनकी जड़ें गहराई तक वहां की ज्ञानार्जन परंपरा और संस्कृति से जुड़ी थीं। इसे गांधी जी ने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से समझाते हुए कहा था-‘मैं अपने घर के खिड़की दरवाजे खुले रखूंगा, ताकि ताजी शुद्ध हवा आ सके। लेकिन मुझे ऐसी आंधी स्वीकार्य नहीं होगी जो मेरे घर को ही तहस-नहस कर दे।’ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र हुए देशों की प्रगति और विकास पर विहंगम दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिनकी विकास की अवधारणा उधार ली गई थी, वे पीछे रह गए। अफ्रीका के अनेक देश इस श्रेणी में आए। जिनकी विकास की अवधारणा की जड़ें गहराई तक वहीं की मिट्टी में गर्इं थीं, वे सफल रहे। इनमें जर्मनी और जापान की द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की प्रगति सटीक उदाहरण प्रस्तुत करती है।

मनुष्य समय और परिवर्तन के प्रवाह को रोक नहीं सकता। वह अपने अनुभव, समझ और ज्ञान से परिवर्तन को दिशा दे सकता है। इस दिशा में उसकी सही सोच तभी विकसित होगी, जब बच्चों और युवाओं के लिए ऐसा वातावरण तैया किया जाए जिसमें उनका चरित्र सही दिशा में निर्मित हो सके और वे मानवीय मूल्यों को आत्मसात कर सकें। स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों पर ही इसका सारा उत्तरदायित्व नहीं डाला जा सकता है। समाज को जिम्मेदारी लेनी होगी, भावी पीढ़ी के समक्ष अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करना होगा। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान हर स्तर पर चयनित जन-प्रतिनिधि कर सकते हैं।