विनोद के शाह

बीमा दावों से फसल नुकसान की पर्याप्त भरपाई न होने से परेशान किसानों ने स्वैच्छिक आधार पर फसल बीमा का ‘प्रीमियम’ अदा करना बंद कर दिया है। देश के सात राज्यों- आंध्रप्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, बिहार, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल ने प्रधानमंत्री फसल बीमा का राज्य अंशदान देना बंद कर दिया है। इससे इन राज्यों में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बंद हो चुकी है।

रबी फसल की कटाई से कुछ दिन पूर्व हुए मौसम परिवर्तन से देश के अठारह राज्यों में खेत में खड़ी फसलें वर्षा और ओलावृष्टि से बुरी तरह प्रभावित हुर्इं। देश में इस वर्ष गेहूं की बुआई 343.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुई थी, जो अभी तक का सर्वाधिक कीर्तिमान है। मगर देखते ही देखते कास्तकारों की आय पर मौसम ने जैसे डाका डाल दिया।

गेहूं उत्पादक राज्य पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान में तीन लाख हेक्टेयर फसलें पूरी तरह नष्ट हो गर्इं। अन्य राज्यों में चना, मसूर, सरसों, मसाले और सब्जियों-फलों की फसलों को अत्यधिक नुकसान हुआ है। नष्ट होने से बची फसलों की गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई है।

फसलों की गुणवत्ता प्रभावित होने से किसानों की आय में चालीस फीसद तक की गिरावट का अनुमान है। प्रभावित राज्यों की सरकारों ने पचास फीसद से अधिक फसलों के नष्ट होने पर अपने राजस्व कोष से बीस हजार से लेकर पचास हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की मदद का एलान किया है। मगर यह मदद उन क्षेत्रों के लिए है, जहां फसलें पचास फीसद से अधिक नष्ट हुई हैं। गुणवत्ता प्रभावित होने और उत्पादन कम आने पर यह राहत उपलब्ध नहीं है।

सन 2016 में केंद्र सरकार ने राज्यों के साथ मिलकर फसल नुकसान और मौसमी प्रकोप से उत्पादन कम आने पर क्षतिपूर्ति के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा की शुरुआत की थी। इसमें भी उत्पादन में पचास फीसद से अधिक के नुकसान पर क्षति का प्रावधान किया गया है। गुणवत्ता प्रभावित होने से किसान के नुकसान की भरपाई का इसमें कोई प्रावधान नहीं है।

बीमा कंपनियों की क्षति शर्तें, आकलन विधि सिर्फ बीमा कंपनियों के लिए फायदेमंद रही हैं। पीड़ित किसानों को तो लागत मूल्य भी प्राप्त करना मुश्किल होता है। गत वर्षों में जब अलग-अलग राज्यों में फसलें बड़े पैमाने पर नष्ट हुई थीं, बीमा दावा अदा करने के बाद भी बीमा कंपनियां मुनाफे में रही हैं।

2019 में मध्यप्रदेश के किसानों को पचास फीसद से अधिक फसल के नुकसान के बाद उनके खातों में दो रुपए से लेकर दो सौ रुपए तक की राशि अदा की गई थी। बीमा कंपनियां क्षति आकलन एजंसियों को क्षति कम दर्शाने का प्रोलभन देती हैं, तो पीड़ित किसान नुकसान को ठीक लिखने के लिए एजंसी को रिश्वत देता है।

बीमा दावों से फसल नुकसान की पर्याप्त भरपाई न होने से परेशान किसानों ने स्वैच्छिक आधार पर फसल बीमा का ‘प्रीमियम’ अदा करना बंद कर दिया है। देश के सात राज्यों- आंध्रप्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, बिहार, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल ने प्रधानमंत्री फसल बीमा का राज्य अंशदान देना बंद कर दिया है। इससे इन राज्यों में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बंद हो चुकी है।

देश में कृषि से जुड़े किसानों की संख्या करीब 10.20 करोड़ है, लेकिन वर्ष 2022-23 में प्रधानमंत्री फसल बीमा में पंजीकृत किसानों की संख्या मात्र 93.44 लाख रही, जो कि 2021-22 की तुलना में उन्नीस फीसद कम है। यह किसानों के प्रधानमंत्री फसल बीमा से मोहभंग का सबूत है। नुकसान की तुलना में बहुत कम क्षतिपूर्ति, समय से बीमा दावों का भुगतान न होना और राजस्व सर्वे इकाइयों का भ्रष्टाचार प्रधानमंत्री फसल बीमा पर किसानों के विश्वास को कमजोर करता है।

किसानों को बीमा प्रीमियम खरीफ फसल के लिए उनके बीमाधन का दो फीसद, रबी और तिलहनी फसलों के लिए डेढ़ फीसद, बागवानी और फलों के लिए आधा फीसद ही अदा करना होता है। शेष प्रीमियम राशि की अदायगी केंद्र और राज्य सरकार आधा-आधा करती हैं। राज्य सरकारें अपने हिस्से की राशि कभी तय समय पर अदा नहीं करती हैं। 2016 से पहले फसल बीमा किसान की ऋण साख के आधार पर हुआ करता था।

सहकारी बैंकों में किसान क्रेडिट कार्ड सीमा अधिकतम ढाई लाख रुपए प्रति किसान है, जिससे पीड़ित किसान को इस अनुपात से ज्यादा बीमा दावा मिलने का प्रावधान नहीं था। प्रधानमंत्री फसल बीमा में इस प्रावधान में सुधार कर बीमा धन किसान की उपलब्ध कृषि भूमि के रकबे के आधार पर तय किया गया है। मगर अब भी प्राकृतिक नुकसान का आकलन व्यक्तिगत खेत को न मानकर राजस्व हलके में शामिल गांवों के कुल नुकसान का औसत निकाल कर किया जा रहा है। इससे वास्तविक नुकसान पीड़ित किसान को उसकी क्षति से बहुत कम की भरपाई हो पा रही है।

दूसरी तरफ आगजनी जैसी घटनाओं में किसान को बहत्तर घंटे में बीमा दावा आवेदन के माध्यम से बीमा कंपनी को सूचना देनी होती है। गांव का अशिक्षित किसान बहत्तर घंटों में कैसे सूचना दे सकता है? गांवो में ईमेल तकनीक सहित बिजली जैसी सुविधाओं का अभाव है। सरकार और नौकरशाही जानती है कि किसान के पास त्वरित संचार तंत्र नहीं है। उसे अपने फसल बीमा का पालिसी नंबर तक नहीं मालूम, क्योंकि किसान को लिखित बीमा बांड उपलब्ध कराने की बाध्यता बीमा कंपनियों पर लागू नहीं है।

प्रति वर्ष फसल उत्पादन का आकलन सरसरी तौर पर प्रत्येक राजस्व हलके से चुनिंदा किसानों के खेत में एक तय क्षेत्रफल में खड़ी फसल के आधार पर किया जाता है। इस तरह चार-छह नमूने के औसत परिणामों से उस इलाके का अधिकतम उत्पादन तय कर लिया जाता है। यह प्रक्रिया किसानों को सूचना दिए बगैर पूरी कर ली जाती है। जिस वर्ष फसल को प्राकृतिक नुकसान होता है, उस वर्ष में उत्पादन न्यूनतम स्तर पर होता है, लेकिन आगामी तीन वर्षों तक यह न्यूनतम उत्पादन आंकड़ा किसान के फसल उत्पादन के आंकड़े को प्रभावित करता रहता है।

इसलिए वास्तविक अधिकतम उत्पादन का आंकड़ा कभी दर्ज ही नहीं होता है। जबकि वैज्ञानिक अध्ययन में प्रत्येक कृषि भूमि में उपयोग किए गए बीज की गुणवत्ता, सिंचाई की मात्रा, बुआई का समय आदि के आकलन से फसल का उत्पादन तय होता है। यह अलग-अलग किसानों द्वारा अपनाई गई तकनीक पर आधारित होता है। इसलिए एक हलके के कुछ किसानों के खेतों के नमूने लेने की पद्धति फसल नुकसान की वास्तविक क्षतिपूर्ति कभी नहीं कर सकती।

कृषि वैज्ञानिक सिंचित भूमि में गेहूं का अधिकतम उत्पादन साठ से अस्सी क्विंटल प्रति हेक्टेयर तय करते हैं। मगर प्रधानमंत्री फसल बीमा में कंपनियों ने विगत छह वर्षों में औसत के आधार पर अधिकतम उत्पादन पैंतालीस क्विंटल से अधिक रिकार्ड में दर्ज ही नही किया है। वास्तविक गेहूं उत्पादन और बीमा कंपनी के आंकलित उत्पादन में चालीस फीसद से अधिक का अंतर है। यह अंतर दलहनी और तिलहनी फसलों में भी इसी प्रकार का है। इन हालात में बीमा कंपनियों से वास्तविक फसल क्षतिपूर्ति की अपेक्षा भला कितनी की जा सकती है।

फसल नुकसान आकलन के लिए पिछले साल से रिमोट सेंसिंग तकनीक और ड्रोन सर्वेक्षण के प्रयोग शुरू हुए हैं। मगर उत्तर प्रदेश के किसानों ने शिकायत की थी कि ड्रोन द्वारा नुकसान आकलन में बीमा कंपनियां नष्ट फसलों के स्थान पर हरी-भरी फसलों की तस्वीर लगा कर दावा अदा करने से बचती रहीं।

बीमा एजंट के रूप में राष्ट्रीय और सहकारी बैंक फसल की किस्म लिखते समय अनाज और दलहनी फसल प्रत्येक किसान के खाते में साठ और चालीस फीसद के अनुपात में लिखते हैं। बीमा एजेंट बैंकों द्वारा दर्ज फसल की किस्म में अंतर के कारण रिमोट सेंसिग सर्वेक्षण और ड्रोन सर्वेक्षण भी बेमानी साबित हो रहे हैं। फसल बीमा होने के बाबजूद राज्य सरकारों द्वारा अपने राजस्व कोष या आपदा प्रबंधन कोष से किसानों को क्षतिपूर्ति देने के लिए कदम उठाना भी प्रधानमंत्री फसल बीमा की उपयोगिता पर सावालिया निशान लगाता है।