हमारे यहां महिलाएं स्वास्थ्य से जुड़ी अनगिनत समस्याओं से जूझती हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से महिलाओं में कैंसर के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, वह चिंता पैदा करता है। ज्यादा बड़ी मुश्किल तो यह है कि न केवल इस व्याधि के उपचार की प्रक्रिया बहुत तकलीफदेह है, बल्कि लंबे समय तक इलाज चलने के कारण महिलाओं के जीवन के हर पहलू पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ता है।
भारत में स्तन कैंसर महिलाओं की जान लेने वाली मुख्य बीमारी बना हुआ है। ‘द ग्लोबल बर्डन आॅफ डिजीज स्टडी’ के अनुसार बीते तीन दशक में भारत में महिलाओं में सबसे ज्यादा स्तन कैंसर के मामले सामने आए हैं। इतना ही नहीं, गर्भाशय कैंसर के मामले भी तेजी से बढ़े हैं।
‘द लैंसेट आॅन्कोलॉजी’ में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में जहां महिलाओं के मुकाबले पच्चीस फीसद अधिक पुरुषों में कैंसर होता है, वहीं भारत में अब ज्यादा महिलाएं कैंसर की जद में आ रही हैं। भारत में महिलाओं में स्तन कैंसर के बाद सर्वाइकल कैंसर, पेट का कैंसर, आंतों और गुदा का कैंसर, होठ और मसूड़े के कैंसर भी तेजी से बढ़े हैं।
व्यापक रूप से देखा जाए तो इस जानलेवा बीमारी के बढ़ते आंकड़ों के पीछे बड़ा कारण शहरों और महानगरों की जीवन शैली में आया बदलाव है। जबकि गांवों में स्वच्छता की कमी के कारण बढ़ता संक्रमण इस भयावह बीमारी को न्योता देने वाला साबित हो रहा है। ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में आज भी महिलाएं सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करतीं। इससे संक्रमण का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है।
फेडरेशन आफ आब्सटेट्रिक एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटी आफ इंडिया के मुताबिक भारत में केवल अठारह फीसद महिलाएं ही सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, जबकि बयासी फीसद महिलाएं सेनेटरी नैपकिन के बजाय पुराने कपड़े जैसे पारंपरिक तरीकों का प्रयोग करती हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार पंद्रह से चौबीस वर्ष के बीच की अट्ठावन फीसद युवतियां कामचलाऊ नैपकीन का इस्तेमाल करती हैं, जो संक्रमण से उनका बचाव कर पाने के लिए काफी नहीं हैं। निस्संदेह ऐसे अस्वच्छ, असुविधाजनक और असुरक्षित विकल्प स्वास्थ्य से जुड़े खतरों को बढाते हैं।
बड़े शहरों में महिलाओं की बदली जीवन शैली भी कैंसर का बड़ा कारण बनी है। 2001 से 2016 के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में तीन में एक महिला पर्याप्त व्यायाम नहीं करती है, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा चार में से एक का है। पहले महिलाएं घरेलू कामकाज में काफी सक्रिय रहती थीं।
लेकिन अब एकल परिवारों की बढ़ती संख्या के चलते न केवल घर के काम कम हुए हैं, बल्कि घरेलू सहायक और मशीनों पर भी पूरी तरह से निर्भरता बढ़ गई है। ऐसे में आधी आबादी में मोटापा और स्तन कैंसर जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
हमारा बदलते सामाजिक पारिवारिक ढांचे ने भी कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों को बढ़ाया है। अध्ययन बता रहे हैं कि यों तो महिलाएं कई तरह के कैंसर का शिकार हो रही हैं, लेकिन इनमें स्तन कैंसर के मामले सबसे ज्यादा हैं। स्तन कैंसर के प्रमुख कारणों में देर से शादी, गर्भ धारण में देरी, स्तनपान कम करवाना, बढ़ता तनाव, बदलती जीवनशैली और मोटापा हैं।
महानगरों में खुलेपन की जीवनशैली और कामकाज के दबाव के चलते युवतियों में धूम्रपान और शराब के सेवन की आदत भी जड़ें जमा रही है। मौजूदा समय में देश में कैंसर के कुल मामलों में चौदह प्रतिशत मामले स्तन कैंसर के हैं। महानगरों में घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी निभा रही महिलाओं में तनाव और अवसाद भी बढ़ रहा है।
इस भागम-भाग के चलते बढ़ रहा तनाव कई तरह की मानसिक और शारीरिक व्याधियां बढ़ा रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक कैंसर सहित कई बड़ी बीमारियों में से अस्सी फीसद बीमारियां इंसान के मन और उसके व्यवहार से जुड़ी हैं। कहना गलत नहीं होगा कि हमारे यहां महिलाएं हरदम भावनात्मक मोर्चे पर कई तकलीफों से जूझती रहती हैं।
दुखद तो यह है कि हाल के वर्षों में आधी आबादी में कैंसर के आंकड़े ही नहीं बढ़े, बल्कि महिलाएं कम उम्र में ही इस रोग की शिकार हो रही हैं। देश भर में बीस से पच्चीस साल के आयु वर्ग में भी यह बीमारी देखने को मिल रही है। सर्वाइकल कैंसर यानी बच्चेदानी के मुंह में होने वाले कैंसर से ही भारत में हर साल करीब तिहत्तर हजार महिलाओं की जान चली जाती है।
स्तन कैंसर के बाद सबसे अधिक मौतें इसी कैंसर से होती हैं। हमारे यहां महिला स्वास्थ्य को लेकर सजगता और सहयोग के हालात आज भी ऐसे हैं कि प्रजनन अंगों में होने वाले कैंसर की जांच और इलाज को लेकर महिलाएं सहज भी नहीं होतीं। इसके चलते भी कई बार परामर्श और इलाज में देरी हो जाती है।
बीते कुछ बरसों में दिल्ली जैसे महानगरों में कम उम्र के लोगों में ही चौथे चरण के कैंसर की पुष्टि होने की खबरों ने चिकित्सकों को हैरान कर दिया। देश में कैंसर के बढ़ते मामलों पर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अगले पांच वर्षों में कैंसर के मामलों की संख्या में बारह फीसद की बढ़त होगी।
गांवों-कस्बों से लेकर महानगरों तक, आधी आबादी को कैंसर की व्याधि घेर रही है। भारत ही नहीं, दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं गर्भाशय के कैंसर के कारण ही मृत्यु का शिकार होती हैं। इनमें ज्यादातर मौतें विकासशील देशों में होती हैं। इसमें भारत की स्थिति भी कम चिंताजनक नहीं है।
आंकड़े बताते हैं कि पंद्रह से चवालीस वर्ष की आयु के बीच की भारतीय महिलाओं में कैंसर से होने वाली मौत का दूसरा सबसे आम कारण गर्भाशय-ग्रीवा कैंसर है। हालात जोखिम भरे इसलिए भी हैं क्योंकि बहुत कम महिलाएं इसकी जांच के बारे में जागरूक नहीं हैं। कैंसर के इलाज को लेकर भले कितनी ही तकनीक और दवाएं विकसित कर ली गई हों, लेकिन आज भी यह एक लाइलाज रोग ही समझा जाता है।
समस्या तब और गहरा जाती है जब इस घातक रोग का लंबा चलने वाला इलाज परिवार को मानसिक और आर्थिक रूप से भी तोड़ देता है। महिलाएं घर की धुरी होती हैं। ऐसे में परिवार भावनात्मक रूप से भी बिखर जाते हैं। लांसेट पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब तीन से पांच फीसद लोग ही इस बीमारी के इलाज की वजह से गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं।
कैंसर के इलाज पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के लिए लोगों को कर्ज लेना पड़ता है या अपनी संपत्ति बेचने को मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में आर्थिक मार भी लोगों को तोड़ देती है।
कैंसर के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अगर इसका सही समय पर पता चल जाए तो इलाज आसान हो जाता है। देश में हर आठवें मिनट में सर्वाइकल कैंसर से एक महिला की जान चली जाती है। व्यक्तिगत सजगता और सामुदायिक जागरूकता ही इस व्याधि के विस्तार को रोक सकती है।
स्वस्थ जीवनशैली अपना कर इस बीमारी की संभावनाओं को काफी हद कम किया जा सकता है। लेकिन दुखद तो यह है कि जागरूकता की कमी के कारण देश में अधिकांश महिलाओं में कैंसर की पहचान तीसरी या अंतिम अवस्था में होती है। यही वजह है कि यह रोग हर उम्र की महिलाओं का जीवन खत्म कर रहा है।