विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने ऐसे एक सौ शहरों को चिह्नित किया है, जो राष्ट्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें फिलहाल पैंतीस करोड़ लोग निवास करते हैं, लेकिन सन 2050 तक इनकी आबादी इक्यावन फीसद तक बढ़ सकती है। भारतीय शहरों में दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरू, मुंबई सहित अनेक राज्यों की राजधानियां और औद्योगिक तथा व्यावसायिक इकाइयां इस सूची में शामिल हैं।
ये शहर भविष्य में पानी की बड़ी किल्लत का सामना कर सकते हैं। दूसरी तरफ इसका विरोधाभासी पहलू यह है कि इन शहरों को बारिश में बाढ़ जैसे हालात से भी दो-चार होते रहना पड़ेगा। करीब दो दशक से पर्यावरणविद लगातार इशारा कर रहे हैं कि शहरों में भूजल का बेतहाशा दोहन रोकना ही पड़ेगा। साथ ही तालाबों, नदियों, कुओं और बावड़ियों का भी संरक्षण किया जाए।
जल संकट के सिलसिले में एक नया तथ्य यह भी सामने आया है कि उन फसलों की पैदावार कम की जाए, जिनके फलने-फूलने में पानी ज्यादा लगता है। यही वे फसलें हैं, जिनका सबसे ज्यादा निर्यात किया जाता है, यानी बड़ी मात्रा में हम परोक्ष रूप से पानी का निर्यात कर रहे हैं। धरती के तापमान में निरंतर हो रही वृद्धि ने भी जलवायु परिवर्तन में बदलाव लाकर इस संकट को और गंभीर कर दिया है। इससे पानी की खपत बढ़ी है और बाढ़ तथा सूखे जैसी आपदाओं में भी निरंतरता बनी हुई है।
खेती और कृषिजन्य औद्योगिक उत्पादों से जुड़ा यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी के चलते पानी का बड़ी मात्रा में निर्यात हो रहा है। इस पानी को ‘वर्चुअल वाटर’ भी कह सकते हैं। दरअसल, भारत से बड़ी मात्रा मे चावल, चीनी, वस्त्र, जूते-चप्पल और फल व सब्जियां निर्यात होते हैं। इन्हें तैयार करने में बड़ी मात्रा में पानी खर्च होता है।
अब तो जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे यहां बोतलबंद पानी के संयंत्र लगाए हुए हैं, वे भी इस पानी को बड़ी मात्रा में अरब देशों को निर्यात कर रही हैं। इस तरह से निर्यात किए जा रहे पानी पर कालांतर में लगाम नहीं लगाई गई तो जल संकट और बढ़ेगा। जबकि देश के तीन चौथाई घरेलू रोजगार पानी पर ही निर्भर हैं।
आमतौर पर यह भुला दिया जाता है कि तेल और लोहे जैसे खनिजों की तुलना में शुद्ध पानी कहीं अधिक मूल्यवान है, क्योंकि पानी पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान करता है। इस दृष्टि से भारत से कृषि और कृषि उत्पादों के जरिए पानी का जो परोक्ष निर्यात हो रहा है, वह हमारे भूतलीय और भूगर्भीय दोनों ही प्रकार के जल भंडारों को दोहन करने का बड़ा कारण बन रहा है।
दरअसल, एक टन अनाज उत्पादन में एक हजार टन पानी की जरूरत पड़ती है। चावल, गेहूं, कपास और गन्ने की खेती में सबसे ज्यादा पानी खर्च होता है। इन्हीं का हम सबसे ज्यादा निर्यात करते हैं। सबसे ज्यादा पानी धान पैदा करने में खर्च होता है। पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में पांच हजार तीन सौ नवासी लीटर पानी लगता है, जबकि इतना ही धान पैदा करने में पश्चिम बंगाल में करीब दो हजार सात सौ तेरह लीटर पानी खर्च होता है।
पानी की इस खपत में इतना बड़ा अंतर इसलिए है, क्योंकि पूर्वी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में तापमान अधिक रहता है। इस कारण बड़ी मात्रा में पानी का वाष्पीकरण हो जाता है। खेत की मिट्टी और स्थानीय जलवायु भी पानी की कम-ज्यादा खपत से जुड़े अहम पहलू हैं। इसी तरह चीनी के लिए गन्ना उत्पादन में बड़ी मात्रा में पानी लगता है।
गेहूं की अच्छी फसल के लिए भी तीन से चार मर्तबा सिंचाई करनी होती है। इतनी तादाद में पानी खर्च होने के बावजूद चावल, गेहूं और गन्ने की बड़ी मात्रा में खेती इसलिए की जाती है, जिससे फसल का निर्यात करके मोटा मुनाफा कमाया जा सके। पंजाब व हरियाणा में चावल, गेहूं और महाराष्ट्र में गन्ने का बड़ी मात्रा में उत्पादन निर्यात के लिहाज से ही किया जाता है।
पानी का परोक्ष निर्यात न हो, इसके लिए फसल प्रणाली में व्यापक बदलाव और सिंचाई में आधुनिक पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है। ऐसा अनुमान है कि धरती पर 1.4 अरब घन मीटर पानी है। लेकिन इसमें से महज दो फीसद पानी मनुष्य के पीने व सिंचाई के लायक है। इसमें से भी सत्तर फीसद पानी खेती-किसानी में खर्च होता है।
इससे जो फसलें व फल-सब्जियां उपजते हैं, उससे निर्यात के जरिए पच्चीस फीसद पानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खपत में चला जाता है। इस तरह से एक हजार पचास अरब वर्ग मीटर पानी का अप्रत्यक्ष कारोबार होता है। एक अनुमान के मुताबिक इस वैश्विक धंधे में लगभग दस हजार करोड़ घन मीटर वार्षिक जल भारत से फसलों के रूप में निर्यात होता है। जल के इस परोक्ष व्यापार में भारत दुनिया में अव्वल है। खाद्य पदार्थों, औद्योगिक उत्पादों और चमड़े के रूप में यह निर्यात सबसे ज्यादा होता है।
कई देश पानी के इस परोक्ष निर्यात से बचने के लिए उन कृषि और गैर-कृषि उत्पादों का आयात करने लगे हैं, जिनमें पानी अधिकतम खर्च होता है। उन्नत सिंचाई की तकनीक के लिए दुनिया में पहचान बनाने वाले इजराइल ने संतरे के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है, क्योंकि इस फल के जरिए पानी का परोक्ष निर्यात हो रहा था।
इटली ने चमड़े के परिशोधन पर पाबंदी लगा दी है। इसके बदले वह जूते-चप्पल बनाने के लिए भारत से बड़ी मात्रा में परिशोधित चमड़ा आयात करता है। इस उपाय से इटली ने दो तरह से देश-हित साधने का काम किए हैं। एक तो चमड़ा परिशोधन में खर्च होने वाला पानी बचा लिया, दूसरे जल स्रोत प्रदूषित होने से बचा लिए।
फसल प्रणाली में बदलाव की दृष्टि से पंजाब देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां नीतिगत बदलाव शुरू हुए हैं। वहां धान का रकबा घटाया जा रहा है। राज्य सरकार ने करीब बारह लाख हेक्टेयर भूमि में धान की बजाय मोटे अनाज और दालें बोने के लिए साढ़े सात हजार करोड़ रुपए की योजना शुरू की है।
सरकार ने धान की खेती वर्षा पूर्व करने पर भी पाबंदी लगा दी है। इससे राज्य को एक साथ दो फायदे होंगे। एक तो भूजल का दोहन घटेगा, और दूसरा यह कि मई में धान की रोपाई पर रोक से बिजली की बचत होगी। फिलहाल पंजाब में अट्ठाईस लाख हेक्टेयर भूमि में धान की खेती होती है, इसे अगले पांच साल में सोलह लाख हेक्टेयर तक समेटने का लक्ष्य है।
बाकी बची बारह लाख हेक्टेयर भूमि में दालें, तिलहन, मक्का, ज्वार और अन्य शुष्क फसलें पैदा की जाने की क्रमश: शुरुआत हो रही है। साफ है पंजाब में चावल का उत्पादन घटेगा तो निर्यात भी घटेगा और निर्यात घटेगा तो परोक्ष पानी के निर्यात पर भी लगाम लगेगी।
हमारे यहां पारंपरिक तरीकों में नहरों और नलकूपों से पाइप लाइन बिछा कर खेतों की सिंचाई की जाती है।
लेकिन अब तकनीक के वक्त में फव्वारों, ड्रिप और बौछार तकनीकों को अपनाने की जरूरत है। इनसे तीस से पचास फीसद तक पानी की बचत होती है। साइप्रस, इजराइल और जॉर्डन जैसे छोटे देशों ने लगभग समूची खेती के लिए ये प्रणालियां अपना ली हैं। भारत में भी इन पद्धतियों से खेती करने की शुरुआत तो हो गई है।
लेकिन अभी महज तीन फीसद सिंचाई हो पा रही है। अगर इनका विस्तार एक करोड़ हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में हो जाए तो भारत बड़ी मात्रा में सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले जल की बचत कर सकता है।