देश में जजों की कमी पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश टीएस ठाकुर पहले भी नाराजगी जता चुके हैं। अब एक बार फिर उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता दिवस के भाषण को रेखांकित करते हुए कहा है कि डेढ़ घंटे के उद्बोधन में न्यायाधीशों की नियुक्ति का कहीं उल्लेख नहीं है। न्यायमूर्ति ठाकुर ने तल्ख लहजे में कहा कि ‘जजों की कमी के कारण समय रहते न्याय संभव नहीं हो पा रहा है। अंग्रेजों के जमाने में दस साल में न्याय मिलता था, वहीं अब न्याय पाने के लिए सौ साल भी कम हैं।’ इसी साल अप्रैल में मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए भी न्यायमूर्ति ठाकुर ने यही बात नम आंखों से कही थी। यह सही है कि अदालतों में चार हजार पद खाली हैं और तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। हालांकि अदालतों में जजों की कमी के अलावा भी कई ऐसे कारण हैं जिनके चलते मुकदमों के निपटारे में देरी होती है, जबकि इन वजहों का मामले को सीधे-सीधे प्रभावित करने से कोई वास्ता नहीं होता है। यदि इन विसंगतियों को शीर्ष न्यायालय अपने स्तर पर दूर कर ले तो शायद लंबित मामलों की समस्या कुछ हद तक कम की जा सकती है।

हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो, ऐसा नहीं है। पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। जजों की कमी कोई नई बात नहीं है। इसलिए 1987 में ही विधि आयोग ने हर दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या दस से बढ़ा कर पचास करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या सत्रह कर दी गई है। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा आस्ट्रेलिया में अट्ठावन, कनाडा में पचहत्तर, फ्रांस में अस्सी और ब्रिटेन में सौ है।

हमारे यहां जिला व सत्र न्यायालयों में इक्कीस हजार की तुलना में चालीस हजार न्यायाधीशों की जरूरत है। मार्च 2016 तक देश के चौबीस उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1056 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 434 पद खाली हैं। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से हैं। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद इसके औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए अलग से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।

अलबत्ता आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीश ग्रीष्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी बैठ गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवा कर कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण न्यायालयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालयों के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं। जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद््दों पर अदालत के दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है।

न्यायिक सिद्धांत का तकाजा यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए। दूसरे, आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति की बाबत फैसला एक तय समय-सीमा में हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। इसकी एक वजह न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी जरूर है, लेकिन यह आंशिक सच है, पूरा सच नहीं। मुकदमों के लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीश भले निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें, ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।’ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि कई न्यायाधीश बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। लिहाजा, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है।

इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल तीन सौ पैंसठ दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं?’ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं, राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग तीन सौ पैंसठ दिन काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं। जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं होता है।

यही प्रवृत्ति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अक्सर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं।

डंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढ़ने का आधार बेवजह की हड़तालें और न्यायाधीशों व अधिवक्ताओं के परिजनों की मौतें भी हैं। ऐसे में श्रद्वांजलि सभा कर अदालतें कामकाज स्थगित कर देती हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस तरह के स्थगन और हड़तालों से बचने की सलाह दी थी। लेकिन जहां स्वार्थ मुकदमों को लंबा चलाने में निहित हो, वहां ऐसी नसीहतों की परवाह कौन करे?

कड़ाई बरतते हुए सुनवाई की दो तारीखों का अधिकतम अंतराल पंद्रह दिन से ज्यादा का न हो। दूसरे, अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर उसका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो। ऐसा होता है, तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है। ऐसी ही सोच के चलते अप्रैल 2015 में मुख्यमंत्रियों और न्यायाधीशों के सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने कहा था, ‘हम पूरी कोशिश करेंगे कि अदालतों में कोई भी मुकदमा पांच साल से ज्यादा न खिंचे।’ यह न्याय प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था।

कई मामलों में गवाहों की अधिक संख्या भी सुनवाई की प्रक्रिया को लंबा खींचने का काम करती है। ग्रामीण परिवेश और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखने में आता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या पचास तक देखी गई है। जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इतने गवाहों के बयानों में विरोधाभास होना संभव है। इसका लाभ फरियादी के बजाय आरोपी को मिलता है।

इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। क्योंकि चिकित्सक गवाही देने से पहले अपनी रिपोर्ट को पढ़ते हैं और फिर उसी इबारत को मुंहजबानी बोलते हैं। लेकिन ज्यादातर चिकित्सक अपनी व्यस्तताओं के चलते पहली तारीख को अदालत में हाजिर नहीं हो पाते, लिहाजा चिकित्सक को साक्ष्य से मुक्त रखना उचित है। इससे रोगी भी स्वास्थ्य सेवा से वंचित नहीं होंगे और मामला बेवजह लंबित नहीं होगा। एफएसएल रिपोर्ट भी समय से नहीं आने के कारण मामला लंबा खिंचता है। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं की कमी होने के कारण अब तो सामान्य रिपोर्ट आने में भी एक से ड़ेढ़ साल का समय लग जाता है। प्रयोगशालाओं में ईमानदारी नहीं बरते जाने के कारण संदिग्ध रिपोर्टें भी आ रही हैं। लिहाजा, इन रिपोर्टों की क्या वास्तव में जरूरत है, इसकी भी पड़ताल जरूरी है। क्योंकि एफएसएल की तुलना में डीएनए जांच कहीं ज्यादा विश्वसनीय है।

अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विसंगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करती हैं। नतीजतन, जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृत्ति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तादाद बढ़ने से नहीं है, लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और कार्यभार बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं।

इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों को विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ने का सबब है। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने की गुंजाइशें हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है।

इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बनाए रहना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित है। कारागारों में विचाराधीन कैदियों की बड़ी तादाद होने का एक बड़ा कारण अदालतों में लेटलतीफी है। जाहिर है, अदालतों में भारी तादाद में मामले लंबित होने के पीछे, जजों की कमी के अलावा अन्य कारण भी हैं, और इनके भी निवारण के उपाय तलाशे जाने चाहिए।