अभिजीत मोहन
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि वर्ष 2018 में रोजाना औसतन पैंतीस बेरोजगारों और छत्तीस स्वरोजगारों ने आत्महत्या की। इन दोनों श्रेणियों के आंकड़ों को जोड़ दिया जाए तो एक वर्ष में करीब छब्बीस हजार लोगों ने आत्महत्या की है। गौर करें तो यह आंकड़ा देश में एक वर्ष में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या से कहीं ज्यादा है। एनसीआबी के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2018 में तेरह हजार एक सौ उनचास स्वरोजगार करने वालों और बारह हजार नौ सौ छत्तीस बेरोजगारों ने जान दे दी। जबकि इसी दौरान दस हजार तीन सौ उनचास किसानों ने खुदकुशी की। वर्ष 2017 के मुकाबले 2018 में स्वरोजगार करने वालों और बेरोजगारों की आत्महत्या दर में साढ़े तीन फीसद की वृद्धि हुई है। देश में आत्महत्या के आधे से ज्यादा मामले यानी 50.9 फीसद पांच राज्यों में दर्ज किए गए हैं। इनमें महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और मध्यप्रदेश शीर्ष पर हैं। सबसे अधिक आत्महत्या की दर छात्रों, निजी कर्मचारियों और सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों में देखने को मिली।
सवाल है कि क्या इन आत्महत्याओं के लिए बढ़ती बेरोजगारी और सरकार की नीतियां जिम्मेदार नहीं हैं? देश के विभिन्न सरकारी विभागों में लाखों पद खाली पड़े हैं, लेकिन उन्हें भरने की कोशिश नहीं हो रही है। नतीजा, बेरोजगारों का धैर्य जवाब दे रहा है और वे जिंदगी खत्म करने जैसा कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं। वित्त व्यय विभाग की पे रिसर्च यूनिट की रिपोर्ट बताती है कि एक मार्च, 2016 की स्थिति के अनुसार केंद्र सरकार में असैन्य कर्मचारियों के कुल 36.34 लाख पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 32.21 लाख पद ही भरे हुए हैं। इस तरह केंद्र सरकार में 11.36 फीसद पद खाली हैं। आयकर एवं रेलवे जैसे विभागों में बड़ी संख्या में पद खाली हैं। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस देश में करोड़ों युवा बेरोजगार हैं और आत्महत्या कर रहे हैं, तो फिर रिक्त पदों को क्यों नहीं भरा जा रहा है।
आश्चर्य यह है कि एक ओर केंद्र सरकार रोजगार सृजन को अपनी प्राथमिकताओं में शुमार बताती है, वहीं दूसरी ओर वह खाली पड़े पदों को भरने पर चुप्पी साधे हुए है। जबकि केंद्र और राज्य सरकारें इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत हैं कि आयकर, रेलवे, शिक्षा, पुलिस विभागों में रिक्त पदों की वजह से कार्य बाधित हो रहा है और विभिन्न तरह की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। लेकिन फिर भी नई भर्तियों के लिए कोई कदम नहीं उठाए जा रहे। रेलवे में तकनीकी कर्मचारियों की कमी की वजह से काम का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसका नतीजा आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है। इसी तरह देश में पुलिसकर्मियों की भारी कमी है, जिसकी वजह से हर तरफ कानून-व्यवस्था की स्थिति नाजुक है। गृह मंत्रालय के ही आंकड़ों पर गौर करें तो देश के तकरीबन सभी राज्यों में पुलिसकर्मियों की कुल स्वीकृत पदों की संख्या बाईस लाख तिरसठ हजार है। इसमें पांच लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। अगर केंद्र व राज्य सरकारें सकारात्मक रुख अपनाएं तो दस लाख से अधिक नौजवानों को तत्काल रोजगार मिल सकता है। लेकिन विडंबना है कि इस दिशा में तनिक भी प्रयास नहीं हो रहा है।
सरकार समावेशी विकास के जरिए रोजगार सृजन के लिए ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ जैसे कई अभियान चला रही है। इसके अलावा बेरोजगारी से निपटने के लिए पहले से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, समन्वित विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं। लेकिन जिस रफ्तार से देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, उससे साफ है कि इन रोजगार कार्यक्रमों का असर न के बराबर है। समस्या यह है कि देश में बेरोजगारी से निपटने का अभी तक कोई ठोस खाका ही नहीं बना है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने स्किल इंडिया के जरिए सन 2022 तक चालीस करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) का सर्वेक्षण बताता है कि इस लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर दस युवाओं में से महज एक युवा को किसी तरह का कारोबारी प्रशिक्षण हासिल है। यानी पंद्रह से उनसठ साल के सिर्फ 2.2 फीसद लोगों ने औपचारिक और 8.6 फीसद लोगों ने अनौपचारिक रूप कारोबारी प्रशिक्षण हासिल किया है। अगर दोनों को जोड़ दें तो यह आंकड़ा 10.8 फीसद ठहरता है। इस समय देश में नौजवानों का रुझान मेडिकल और इंजीनियरिंग क्षेत्रों को लेकर ज्यादा है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में भी रोजगार में कमी आई है। शिक्षा की निम्न गुणवत्ता की वजह से कैंपस में होने वाली भर्तियों में भी पैंतालीस फीसद की गिरावट आई है। दरअसल, इसके लिए इंजीनियरिंग शिक्षा के पाठ्यक्रम का पुराना पड़ जाना भी बड़ा कारण है।
आमतौर पर पच्चीस से तीस वर्ष के बीच पनच्यानवे फीसद नौजवान अपनी पढ़ाई पूरी कर लेते हैं और फिर रोजगार की तलाश शुरू कर देते हैं। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की ‘इंडिया स्किल रिपोर्ट’ बताती है कि भारत में हर साल तकरीबन सवा करोड़ शिक्षित युवा तैयार होते हैं। ये नौजवान रोजगार के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र सभी जगह अपनी किस्मत आजमाते हैं। लेकिन उनमें से सिर्फ सैंतीस फीसद कामयाब होते हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां सिकुड़ रही हैं। ज्यादा सच यह है कि सरकारी खर्च में कटौती के लिए सरकार रिक्त पदों को भरने को तैयार नहीं है। दूसरा यह कि निजी क्षेत्र में उन्हीं लोगों को रोजगार मिल रहा है जिन्हें कारोबारी प्रशिक्षण हासिल है। यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि देश में सालाना सिर्फ चालीस लाख लोगों के लिए कौशल प्रशिक्षण की व्यवस्था है, जबकि सवा करोड़ शिक्षित बेरोजगार युवा रोजगार की कतार में खड़े होते हैं। ऐसे में उचित यह होगा कि सरकार रिक्त पड़े पदों को भरने के अलावा कौशल प्रशिक्षण केंद्रों की संख्या बढ़ाए। अगर छोटे कस्बों में नए विकास केंद्र खोले जाएंगे तो निस्संदेह इससे औद्योगिक ढांचे का विकेंद्रीकरण होगा और अर्थव्यवस्था अधिक आत्मनिर्भर बनेगी।
आज ग्रामीण बेरोजगारी सबसे अधिक है। लेकिन कुछ उपायों के जरिए इसे अवसर में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर नौजवानों को खेती, बागवानी, पशुपालन, वृक्षारोपण, कृषि यंत्रों की मरम्मत जैसे कामों का आधुनिक तकनीक का प्रशिक्षण प्रदान किया जाए तो ग्रामीण बेरोजगारी से निपटने में मदद मिलेगी। इसके अलावा स्वास्थ्य देखभाल (हेल्थकेयर), रियल एस्टेट, शिक्षा एवं प्रशिक्षण, आइटी, विनिर्माण, जैसे क्षेत्रों में भी रोजगार के अवसर पैदा करने की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा। अगर सिर्फ बैंकिंग समूह ग्रामीण क्षेत्रों में अपना विस्तार करें तो लाखों युवाओं को रोजगार मिल सकता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों की भारी कमी है। अगर सरकार इसका विस्तार करे तो न सिर्फ रोजगार का सृजन होगा, बल्कि सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य लाभ भी मिलेगा। रोजगार बढ़ाने के लिए छोटे उद्योगों का विकास सबसे ज्यादा जरूरी है। अर्थशास्त्रियों का भी कहना है कि लघु उद्योगों में उतनी ही पूंजी लगाने से लघु उद्योग, बड़े उद्योगों की तुलना में पांच गुना अधिक लोगों को रोजगार देते हैं।