सत्रहवीं लोकसभा के लिए दूसरे चरण का मतदान भी हो गया लेकिन असल मुद्दे अभी तक गायब हैं। इससे लगता है कि सियासत का जन-सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है। चुनाव के प्रचार अभियान में साफ दिख रहा है कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव न केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि हर सियासी दल अपने को पाक-साफ बताने और दूसरे को चोर साबित करने में लगा है। असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई है। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई है। विडंबना यह है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है।

आधी-अधूरी मतदाता सूचियां, कम मतदान, मध्यवर्ग की मतदान में कम रुचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, चुनाव में बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, जाति-धर्म की सियासत, बढ़ता चुनावी खर्च, आचार संहिता की अवहेलना- ऐसी बुराइयां हैं जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जानलेवा साबित हो रही हैं। इस बार भी चुनाव इन समस्याओं से अछूता नहीं है। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने ग्यारह वोट डाल लेता है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वाचन आयोग के ब्रांड एंबेसडर का नाम ही मतदाता सूची से गायब है। कहीं देखने में आ रहा है कि कचरे के ढेर में मतदाता पहचान पत्रों के बंडल मिल रहे हैं। लेकिन किसी भी कुसूरवार पर कोई कड़ी कार्रवाई होती नहीं दिख रही। कई मामलों में तो निर्वाचन आयोग असहाय-सा नजर आता है।

जाति, धर्म के नाम पर या शराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने का जुगाड़ जब दिल्ली जैसे महानगर में सरेआम होता दिखता है तो जरा कल्पना करें उन गांवों की स्थिति क्या होगी जहां न सरकारी अमला पहुंचता है, न मीडिया। बड़े-बड़े रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। चुनाव लूटने के ऐसे हथकंडे इसलिए कारगर हैं कि हमारे यहां एक वोट या फिर पांच लाख वोट, दोनों तरह जीतने वाले सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राष्ट्रपति चुनाव की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, न कि केवल किसी खास जाति के वोट के।

कैबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को लेकर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को न केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक वोट हासिल करने को भी मजबूर करेगा। कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं जो महज राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने की खातिर तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं। ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी से मतदाताओं को अपनी पसंद का प्रत्याशी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है। ऐसे उम्मीदवार चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं।

सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘बेवजह उम्मीदवारों’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है। इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारों की बात कोई भी राजनीतिक दल नहीं करता। करे भी क्यों? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही देन होते हैं। जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से छद्म उम्मीदवार खड़ा करती हैं। किसी जाति-धर्म या क्षेत्र-विशेष के मतों को किसी के पक्ष में जाने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूटनीति-सी बन गई है। विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिह्न से मिलते-जुलते चिह्न पर किसी को खड़ा कर मतदाता को भ्रमित करने की साजिश रची जाती है। चुनाव में बड़े राजनीतिक दल भले मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि देश के दो सौ से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटने वाले उम्मीदवारों के कद पर निर्भर करता है।

यह विडंबना ही है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आकर चुनाव लड़ जाता है और ग्लैमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नव-सामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा।

चुनाव कराना बेहद खर्चीला होता जा रहा है। अगर किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रुके रहते हैं। ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव (कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एक साथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश स्थायी व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम सांसदों की खरीद-फरोख्त को रोकने का जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्यस्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की शर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक न बना पाएं। सनद रहे कि सोलह से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती हैं, जो खर्चीला काम है और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।

चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनीतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1971 में वांचू कमेटी ने अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है। इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के खाते का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे। 1980 में राजा जे. चलैया समिति ने भी लगभग ऐसी ही सिफारिशें की थीं। ये सभी रिपोर्टें अब भूली जा चुकी हैं। चुनावी खर्च को लेकर आज भी कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है। ऐसे में चुनाव सुधार की बात बेमानी से ज्यादा कुछ नहीं लगती।