अफगानिस्तान में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव के प्राथमिक नतीजे बता रहे हैं कि इस मुल्क में एक बार फिर अशरफ गनी राष्ट्रपति बनेंगे। प्राथमिक चुनाव परिणामों में वे अपने विरोधी उम्मीदवार डा. अब्दुल्ला अब्दुल्ला से आगे हैं। अशरफ गनी को 50.64 फीसद मत मिले हैं, जबकि अब्दुल्ला को 39.52 फीसद मत मिले हैं। हालांकि अब्दुल्ला ने प्राथमिक चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं किया है। उनका आरोप है कि चुनावों में हेराफेरी की गई है। ये हेराफेरी तीन लाख वोटों की है। तीन करोड़ सत्तर लाख की आबादी वाले देश में मतदाताओं की संख्या छियानवे लाख ही है। इसके बावजूद चुनावों के दौरान हेराफेरी के आरोप लगे। चुनावों में सुरक्षा के लिए बहत्तर हजार सुरक्षा कर्मचारी लगे थे और छब्बीस हजार पर्यवेक्षक नियुक्त किए गए थे।
अफगानिस्तान के दुबारा राष्ट्रपति बनने के बाद अशरफ गनी की चुनौतियां कम नहीं होने वाली। उनकी चुनौतियां और बढ़ेंगी, क्योंकि तालिबान के साथ अमेरिका की शांति वार्ता विफल हो गई है। अशरफ गनी शुरू से ही इस शांति वार्ता के खिलाफ थे। इस शांति वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार को शामिल नहीं किया गया था। गनी का तर्क था कि शांति वार्ता में अगर अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया है, तो वार्ता का कोई मतलब नहीं है। हालांकि गनी भी उसी पश्तून जनजाति से आते हैं, जिसका वर्चस्व तालिबान पर है। लेकिन तालिबान ने पश्तून अशरफ गनी को हमेशा अमेरिकी एजंट माना और उन्हें स्वीकार नहीं किया। अफगानिस्तान के एक और पश्तून राष्ट्रपति रहे हामिद करजई को भी तालिबान ने स्वीकार नहीं किया था। तालिबान के विरोध के बावजूद हामिद करजई की पकड़ पश्तून बिरादरी में अशरफ गनी से काफी ज्यादा थी। कंधार जैसे इलाके में करजई और उनके परिवार ने पश्तून बिरादरी में अच्छी पकड़ बना रखी थी।
करजई ने अपने कार्यकाल में तालिबान के आतंक पर काफी हद तक लगाम लगाई थी। लेकिन अशरफ गनी के कार्यकाल में तालिबान पूरी ताकत के साथ वापस उभरा और कंधार और हेलमंड जैसे राज्यों में खासा नियंत्रण स्थापित कर लिया और कई पूर्वी राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ा लिया। वर्तमान में अफगानिस्तान के सत्तर फीसद इलाके में तालिबान अपनी मौजूदगी दिखा रहा है। एक तरह से तालिबान का अफगानिस्तान की डेढ़ करोड़ आबादी पर खुला राज है। अफगानिस्तान का लगभग दस फीसद इलाका पूरी तरह से तालिबान के कब्जे में है। साठ फीसद इलाके में तालिबान की पूरी सक्रियता स्पष्ट रूप से दिख रही है। उसने अशरफ गनी की सरकार को काफी हद तक काबुल और उत्तरी अफगानिस्तान तक सीमित कर रखा है और कई इलाकों में अफगान सरकार के आदेशों को चलने नहीं दिया जाता। अशरफ गनी के पहले कार्यकाल में तालिबान का प्रभाव बढ़ा, उस सूरत में गनी अपने दूसरे कार्यकाल में तालिबान से कैसे निपटेंगे, यह समय बताएगा।
अशरफ गनी को अपने दूसरे कार्यकाल में कई समस्याएं आएंगी। अफगानिस्तान की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं है। देश में बुनियादी सुविधाओं से लेकर ढांचागत समस्याएं तक मुंह बाए खड़ी हैं। सेना के बजट के लिए अशरफ गनी को विदेशी मदद पर निर्भर रहना पड़ रहा है। सेना का सालाना बजट लगभग छह अरब डालर है। दूसरी तरफ अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी सिर्फ बारह हजार रह गई है। इससे अफगानिस्तान में तालिबान फिर से मजबूत हुआ है। वहीं, पाकिस्तान से लगते देश के पूर्वी राज्यों में इस्लामिक स्टेट (आइएस) की मौजूदगी भी बढ़ रही है। अशरफ गनी की एक बड़ी समस्या पश्तूनों पर ढीली पड़ती पकड़ है। पश्तून बिरादरी में उप-जातियों की मजबूती काफी महत्त्व रखती है। गनी अहमदजई उप-जाति से आते हैं। इस उप-जाति का प्रभाव तालिबान के आंतरिक ढांचे में बहुत नहीं है। जबकि पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई, जिनकी उप-जाति पोपलजई है, की खासी पकड़ तालिबान के आंतरिक ढांचे में है। वर्तमान में तालिबान का दूसरे नंबर का कमांडर और अमेरिकी शांतिदूत से बातचीत के लिए अधिकृत प्रतिनिधि मुल्ला अब्दुल गनी बरादर भी पोपलजई उप-जाति से है। मुल्ला बरादर ने हामिद करजई के राष्ट्रपति के कार्यकाल में उनकी खासी मदद की थी। बरादर और करजई के अच्छे संबंध थे और इस कारण पाकिस्तान खासा नाराज भी हुआ था। पाकिस्तान में शरण लिए मुल्ला बरादर को पाकिस्तानी एजंसियों ने सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया था कि वह हामिद करजई की अंदरखाने मदद कर रहा था, तालिबान और हामिद करजई के बीच बातचीत का रास्ता खोल रहा था।
भले अशरफ गनी दुबारा राष्ट्रपति बन जाएं, अफगानिस्तान में शांति स्थापित करना आसान काम नहीं है। इसका कारण अफगानिस्तान में इस्लाम की विभिन्न जनजातियों का आपसी संघर्ष है। फिर अफगानिस्तान का भूगोल भी जटिलता लिए हुए है। यहां के संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई है। अफगानिस्तान का एक पड़ोसी देश ईरान है, जो शिया बहुल देश है। दूसरा पड़ोसी पाकिस्तान है, जो सुन्नी बहुल है। इन दोनों ही मुल्कों का अफगानिस्तान में भारी दखल है। पश्तून जनजाति का मूल ईरान से जुड़ा है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान सीमा के दोनों तरफ पश्तूनों की बड़ी आबादी है। अफगानिस्तान लंबे समय से पाकिस्तान के पश्तून बहुल इलाकों को अपना हिस्सा बताता रहा है। यही कारण है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान को विभाजित करने वाली डूरंड लाइन को अफगानिस्तान चुनौती देता रहा है।
अफगानिस्तान में पाकिस्तानी दखल के कई कारण हैं। अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी पाकिस्तान को शुरू से खलती रही है। क्वेटा से कंधार होकर तुर्कमेनिस्तान तक जाने वाले व्यापारिक गलियारे और पेशावर से काबुल होकर मध्य एशिया तक जाने वाले गलियारे पर पाकिस्तान अपना वर्चस्व चाहता रहा है। दूसरी ओर, ईरान भी कंधार होकर तुर्कमेनिस्तान तक जाने वाले व्यापारिक गलियारे पर कब्जा जमाना चाहता है, क्योंकि यह गलियारा ईरान की सीमा से सटा हुआ है।
अफगानिस्तान के भूगोल ने पश्चिमी ताकतों को भी यहां आकर्षित किया। तभी अमेरिका और उसके सहयोगी देश लंबे समय तक यहां लड़ाई के लिए मौजूद रहे। अमेरिका की नजर अफगानिस्तान के संसाधनों और भूगोल पर रही है। ईरान को कमजोर रखने और कई अमेरिका-समर्थक इस्लामिक देशों के हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका अफगानिस्तान में दखल देता रहा है। लेकिन लंबे समय तक तालिबान के साथ जंग और फिर भी तालिबान के कमजोर नहीं पड़ने के कारण अमेरिका ने तालिबान से बातचीत शुरू कर दी। लेकिन ये वार्ताएं विफल रहीं। सच्चाई तो यह है कि अमेरिका अब तालिबान से लड़ने के मूड में नहीं है। वह अब तीस-चालीस अरब डालर अफगानिस्तान में खर्च करने को तैयार नहीं है। 2010 से 2012 तक अमेरिका का अफगानिस्तान में वार्षिक खर्च सौ अरब डालर तक पहुंच गया था। अब अमेरिका को लग रहा है कि अफगानिस्तान के अंदर मौजूद खनिजों का दोहन भी अमेरिकी कंपनियां नहीं कर सकती हैं। दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों के दोहन की योजना बनाई थी।
अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे के एक अध्धयन ने बताया गया था कि अफगानिस्तान में एक लाख करोड़ डॉलर के खनिज जमीन में दबे पड़े हैं, जिनमें सोना, चांदी, तांबा, लोहा आदि शामिल हैं। डोनाल्ड ट्रंप इस रिपोर्ट से खासे उत्साहित थे। लेकिन धीरे-धीरे ट्रंप की योजना पर पानी फिरने लगा, क्योंकि संसाधनों के दोहन के लिए अफगानिस्तान में ढांचागत सुविधाओं का भारी अभाव है, जिसमें रेल और सड़क शामिल हैं। इसी के विकास पर अमेरिका को अफगानिस्तान में अरबों डालर खर्च करना पड़ेगा। कई खनिज बहुल इलाके तो ऐसे हैं जहां अफगानिस्तान सरकार का नियंत्रण भी नहीं है। ऐसे में अमेरिकी कंपनियों के लिए अफगानिस्तान में निवेश घाटे का सौदा है। निवेशक कंपनियों के अनुसार खनिज वाले क्षेत्र की सुरक्षा और फिर खनिज के परिवहन की सुरक्षा पर भारी खर्च आएगा और कंपनियों को कुछ नहीं बचेगा।

