जाति और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल की तरकीबें भाषणों और नारों तक सीमित नहीं रही हैं। जातिगत सम्मेलनों में शिरकत करना, मजहबी जलसों में शामिल होना, मंदिरों में दर्शन और धार्मिक समारोहों में भागीदारी, पूजा-क्लबों को आर्थिक सहायता आदि ढेर सारे तरीके हैं जिनसे उम्मीदवार और अन्य राजनीतिक मतदाताओं को अपना इच्छित
‘संदेश’ देते रहते हैं।
कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी मर्यादा का पाठ पढ़ाया है- धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट मांगना गैर-कानूनी है। उम्मीदवार के साथ-साथ उसकेप्रतिनिधि, अन्य राजनीतिक और धर्मगुरु भी इस फैसले के दायरे में आएंगे। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है। अगर इसे लागू करवाने में चुनाव आयोग सफल हो सके तो हमारे लोकतंत्र के लिए यह आदर्श स्थिति होगी। पर व्यावहारिक रूप में इसे लागू करने में काफी कठिनाइयां आएंगी। हालांकि इससे पहले भी जाति या धर्म के नाम पर वोट मांगने को गैर-कानूनी बताया गया था। दरअसल, इसका प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून में शुरू से रहा है। अलबत्ता संविधान पीठ के ताजा फैसले से उस प्रावधान को और बल मिला है तथा पांच राज्यों के चुनावों से पहले एक जरूरी संदेश गया है। उम्मीदवार ही नहीं, पार्टी के प्रतिनिधि और अन्य लोग भी चुनाव प्रचार के दौरान धर्म या जाति के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर सकेंगे। जाहिर है, इससे राजनीतिक दलों को परेशानी होगी, जो धर्म और जाति के नाम पर जुगलबंदी की जुगत में लगे रहते हैं।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अगर हुबहू लागू हो जाए तो भारत दुनिया का एक आदर्श लोकतंत्र बन जाएगा। पर इसे लागू करना आसान काम नहीं होगा क्योंकि यहां तो कई राजनीतिक दलों का गठन ही क्षेत्र, धर्म और नस्ल के आधार पर हुआ है। कुछ राजनीतिक दलों की स्थापना के मूल में जाति की अस्मिता रही है। हालांकि कई राष्ट्रीय दल विचारधारा के आधार पर अपने संगठन को चलाने का दावा जरूर करते हैं, पर चुनावों के दौरान जाति और धर्म का इस्तेमाल इनके उम्मीदवार और समर्थक भी करते हैं। अब चुनावों में जाति और धर्म का इस्तेमाल न हो इसे लागू करने की जिम्मेवारी चुनाव आयोग की होगी। पर आयोग इसे लागू करवाने में कितना सफल होगा यह समय बताएगा। क्योंकि जाति और धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने की तरकीबें चुनावी भाषणों और नारों तक सीमित नहीं रही हैं। जातिगत सम्मेलनों में शिरकत करना, मजहबी जलसों में शामिल होना, मंदिरों में दर्शन और धार्मिक समारोहों में भागीदारी, पूजा-क्लबों को आर्थिक सहायता आदि ढेर सारे तरीके हैं जिनसे उम्मीदवार और अन्य राजनीतिक मतदाताओं को अपना इच्छित ‘संदेश’ देते रहते हैं।
अभी तक आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती निष्पक्ष चुनाव करवाने और चुनावों में होने वाली धांधली को रोकने की रही है। चुनावी हिंसा को रोकने में आयोग तो काफी सफल रहा है, लेकिन मतदाताओं को प्रभावित करने वाले भ्रष्ट तरीकों को रोकने में आयोग को वैसी सफलता नहीं मिली है जैसी मिलनी चाहिए थी। चुनावों में पैसे बांटने से लेकर शराब बांटने तक का खेल चलता है। संस्थाओं और क्लबों को भी पैसे बांटे जाते हैं। कुछ सालों से ‘पेड न्यूज’ के किस्से भी सामने आते रहे हैं। यह सब भी जनप्रतिनिधित्व कानून और चुनाव संबंधी अन्य कानूनों के मुताबिक जुर्म है। मगर क्या इस सब पर रोक लग पाई है? ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जाए कि सर्वोच्च अदालत के ताजा आदेश पर मुकम्मल अमल होगा?
भारत में जाति और धर्म का राजनीति में प्रयोग कोई नहीं बात नहीं है। हां, यह जरूर कह सकते हैं कि पिछले तीस सालों में राजनीति में धर्म और जाति का प्रयोग बढ़ता गया है। हालांकि भारत में चुनावी राजनीति के दौरान धर्म और जाति के प्रयोग की भूमिका ब्रिटिश राज में रखी गई थी। ब्रिटिश राज में चुनावों में जाति और धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करने की कोशिश की गई थी। लेकिन आजादी के बाद चुनाव में जाति और धर्म के इस्तेमाल पर संवैधानिक रोक लगाने की व्यवस्था की गई। इसके बावजूद पार्टियों ने राजनीतिक हितों के लिए जाति और धर्म का प्रयोग कुछ ज्यादा ही किया। हालांकि आजादी के बाद के पहले चार दशक में गरीबी और विकास ही चुनावी मुद््दा होता था। लेकिन नब्बे के दशक से जाति और धर्म के नाम पर खुल कर गोलबंदी होने लगी। फिर, चुनावी लाभ के लिए कई जातियों के समीकरण भी बनने लगे। सतह पर मोर्चा या गठबंधन, पर असल में जातियों के समीकरण। चुनावी लाभ के लिए धुर विरोधी जातियों के अस्थायी गठजोड़ बनाने की कोशिश भी हुई। इस तरह की कवायद को सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया और राजनीतिक विश्लेषण में भी यह नाम चलने लगा।
यों तो पूरे देश में राजनीति में जाति और धर्म के इस्तेमाल की परिघटना चलती रही है, पर दो राज्यों में यह सबसे ज्यादा देखने में आती है। बिहार में चुनाव जातिगत गोलबंदी के इर्दगिर्द ही घूमता है, वहीं उत्तर प्रदेश जैसा राज्य धर्म और जाति, दोनों के राजनीतिक ताने-बाने का सबसे बड़ा उदाहरण बन गया है। 1960 के दशक में बिहार में नारा दिया गया था, वोट और बेटी जात को। यह नारा सफल रहा। बिहार की राजनीति में दबंग दो अगड़ी जातियों के बीच सत्ता पर कब्जे के लिए जोरदार संघर्ष हुआ। बेशक ये दोनों अगड़ी जातियां परंपरागत रुप से एक ही दल कांग्रेस में थीं। लेकिन 1990 के दशक के बाद बिहार की राजनीति अगड़े बनाम पिछड़े के बीच बंट गई। सत्ता के गलियारों में वर्चस्व के लिए खुल कर जाति की दुहाई चुनावी सभाओं में दी गई। पिछड़ों की जीत हुई। अगड़े जो कभी आपस में संघर्ष करते थे, चुनावी मैदान में एकजुट रहना उनकी मजबूरी हो गई। नब्बे के दशक में जहां वोट के लिए जातियों का खुल कर प्रयोग किया गया, वहीं इसी दशक में धर्म का इस्तेमाल भी वोट के लिए खूब हुआ। इसके बाद अगले छब्बीस सालों तक उत्तर प्रदेश जाति और धर्म की राजनीति के प्रयोग का अखाड़ा बना रहा। अब भी स्थिति बदली नहीं है। चाहे कोई कालेधन और भ्रष्टाचार से लड़ाई का झंडा उठाए हो और कोई विकास का, जातिगत समीकरण बिठाए बिना किसी की गाड़ी आगे बढ़ती नहीं है। जहां जाति और धर्म का कार्ड नहीं चल सकता, वहां क्षेत्र का कार्ड चलाया जा रहा है। पंजाब जैसे राज्य में, जहां अभी तक चुनावों के दौरान धर्म का झंडा ऊंचा रहता था, इस बार क्षेत्रीय भावनाएं भी उभारने की कोशिश हो रही है।
तमाम राज्यों में विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान जाति, धर्म और क्षेत्र का कार्ड खेलना एक सामान्य बात हो गई है। इस खेल को अगर चुनाव आयोग रोक पाए, तो एक आदर्श स्थिति पैदा होगी। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो दुनिया के सबसे विकसित देश माने जाते हैं वहां भी चुनावों में नस्ल और अन्य सामाजिक पहचानों के आधार पर वोट बटोरने की कोशिश होती रही है। इसका ताजा उदाहरण हाल में हुआ अमेरिका का राष्ट्रपति-चुनाव है। पूरा अमेरिकी समाज श्वेत, अश्वेत, अफ्रीकी, एशियाई और हिस्पैनिक के नाम पर बंटा नजर आया। अमेरिका के बहुसंख्यक श्वेतों ने राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप को वोट दिया। वहीं दुनिया के कई देश, जो कहने को लोकतंत्र को अंगीकार हुए हैं, नस्ली या मजहबी पहचान का जामा पहने हुए हैं। इसका एक उदाहरण पाकिस्तान है। चुनावों के दौरान पूरा पाकिस्तान सिंधी, बलूची, पंजाबी और पश्तूनों के बीच बंट जाता है। वहां कई राजनीतिक दलों का गठन भी इन्हीं आधारों पर हुआ है। भारत की स्थिति इससे कुछ बेहतर है; हमारी धर्मनिरपेक्षता की नींव अपेक्षया मजबूत है। पर हमारी स्थिति भी आदर्श से बहुत दूर है।