‘मेरे साथ हुए रेप ने मेरी और मेरे परिवार की सामाजिक जिंदगी को तबाह कर दिया है। मेरा क्या दोष था? लेकिन मोहल्ले से मिल रहे रोजाना के ताने और पुलिस की सही जांच ना होने के चलते रेप के आरोपी का जल्द छूट कर आना और फिर मुझे सबके सामने ताने देना, अब इस जिंदगी से मैं परेशान हो गई हूं, इसलिए मैं आत्महत्या कर रही हूं।’ दिल्ली के हर्ष विहार की बारहवीं की छात्रा का यह बयान कई सवाल खड़े करता है। बलात्कार पीड़िता की यह पहली सुनियोजित, सांस्थानिक हत्या नहीं है और न ही यह आखिरी होगी। भारत में आए दिन बलात्कार पीड़िता की अपराधियों द्वारा हत्या व स्वयं पीड़िता द्वारा आत्महत्या की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। पुलिस प्रशासन व हमारा सामाजिक ताना-बाना मूकदर्शक बना हुआ है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में प्रतिदिन तिरानबे महिलाओं का बलात्कार होता है। 2010 से इसमें सात से चौदह प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली है। एक तिहाई मामलों में बलात्कार पीड़िता की उम्र अठारह वर्ष से कम होती है। अधिकतर महिलाएं दफ्तरोंं, खेतों, विद्यालयों आदि जगहों पर बलात्कार की शिकार होती हैं। बढ़ती भोगवादी संस्कृति व पोर्नोग्राफी ने बच्चों के जीवन को भी खतरे में डाल दिया है। बड़़ी संख्या में छोटे बच्चे-बच्चियां झुग्गी-झोपड़ियों, छोटे शहरों व गरीब परिवारों से गायब हो रहे हंै। इन गायब बच्चों में से दो तिहाई बच्चियां होती हैं जिन्हें देह व्यापार में धकेल कर कुछ राक्षसी प्रवृत्ति के लोग पैसा बनाते हैं। बलात्कार की घटना के स्थानों की बात करें तो ऐसी 30.9 प्रतिशत घटनाएं अपराधी के घर में और 26.6 प्रतिशत स्वयं पीड़िता के घर में घटती हैं। 10.1 प्रतिशत घटनाएं दोनों के परिचित स्थानों में, 7.7 पार्टी अथवा वाहनों में, 2.2 प्रतिशत बार या रेस्तरां में घटती हैं।

अगर देशों के हिसाब से देखें तो बलात्कार की सर्वाधिक घटनाएं अमेरिका होती हैं। इस क्रम में भारत तीसरे स्थान पर है, भारत में दिल्ली सबसे ऊपर। बलात्कार की सबसे ज्यादा घटनाएं मैट्रो शहरों में घटती हैं। इनमें दिल्ली, मुंबई, जयपुर पुणे प्रमुख हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि छोटे शहरों अथवा गांवों में ऐसी घटनाएं नहीं घटतीं, पर वहां इनकी बारम्बारता में कमी देखने को मिलती है। ऐसे देश में जो इतिहास के आरंभिक काल से ही स्वयं के सभ्यता, संस्कृति तथा परंपरा के धनी होने की कहानियां सुनाता हो, वहां आधी आबादी के अस्तित्व का संकट समझ से परे है। आखिर क्या कारण है कि दिनोंदिन बढ़ती साक्षरता व जागरूकता भी इसे रोकने में लाचार दिख रही है। स्त्रियों के विषय में भारतीय समाज का यह रवैया परेशान करने वाला है। कितनी आसानी से हम बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के विषय पर अपने को मौन रख पाते हैं।

पुरुष की पहचान उसके पौरुष से तो महिला की अस्मिता को यौन पवित्रता से जोड़ने के सामाजिक-धार्मिक अपराध का ही परिणाम है कि पीड़िता आत्महत्या को विवश कर दी जाती है। कभी-कभी बल्कि अक्सर सामाजिक संस्थाओं व नातेदारों तथा पारिवारिक सदस्यों द्वारा भी पीड़िता को आत्महत्या के लिए उकसाया जाता है। ऐसे समाज को क्या कहें, जो अपने ही सदस्यों को झूठे प्रोपेगंडा के कारण मारने को तैयार है। कभी कथित इज्जत के नाम पर मां-बाप या परिवार स्वयं मारते हैं तो कभी सम्मान को ही आधार बना कर पीड़िता स्वयं अपना अंत कर लेती है तथा रही-सही कसर दबंगों, धनिकों व बाहुबलियों के आगे लाचार न्यायिक-प्रशासनिक व्यवस्था पूरी कर देती है।

आखिर कब तक झूठी शान की खातिर हम अपनी बहन-बेटियों का कत्ल करते रहेंगे! यह तो वैसा ही है जैसे पूर्व में मध्य एशियाई बद््दू खानाबदोश जातियां अपनी बहन-बेटियों को जिंदा दफना या मार देती थीं। उसे हम कबाइली व्यवस्था या असभ्यता कह कर उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, और जब हम ऐसा स्वयं करते हंै तो कैसे सभ्य बने रहते हैं यह आज तक यह मुझे समझ नहीं आया। इसी तरह पहले विधवा की हत्या को कुछ लोग जायज ठहरा रहे थे, सतीप्रथा के नाम पर उसे महिमामंडित भी करते रहे। पर आज वैसे लोगों की बोलती बंद है। आज कहीं-कहीं विधवा बहनें पुरुषों के समान पुनर्विवाह कर सुखमय जीवन व्यतीत कर रही हैं, कोई-कोई विभिन्न क्षेत्रों में नित नई ऊंचाई प्राप्त कर समाज को नई दिशा भी दिखा रही हैं।

आत्म-सम्मान, यौन शुचिता व धर्म को बचाने-बढ़ाने का ठेका क्या औरतों ने स्वयं ले रखा है या पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था द्वारा उन पर थोपा गया है? इसको समझना बहुत आवश्यक है, विशेषकर उन बहन-बेटियों को, जिनकी उड़ान रोकने के लिए शैतानी प्रवृृत्ति के लोग उनके साथ यह ओछी हरकत करते हंै। अगर कोई धर्म ईश्वर-कृत दोनों जातियों- पुरुष व स्त्री- के लिए अलग-अलग मानक तय करता है तो मेरी नजर में यह धर्म नहीं बल्कि पाखंड है जिसे हर हाल में बंद करना होगा। परिवार, समाज, नातेदारी, आदि सब सदस्य को कठिन समय में सुरक्षा देने के लिए बनाए गए हैं और जब ये ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे तो इनके रहने का कोई औचित्य नहीं बनता।

जो लोग पीड़िता की बाबत भद््दी टिप्पणी करते हैं, उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, उसे अपमानित करते हैं, उन्हें अपने कृत्य के बारे में सोचना चाहिए। यदि उनके अपने किसी खास के साथ ऐसी घटना होती तो क्या उनका रवैया वैसा ही होता? यदि पीड़िता दलित, गरीब, असहाय परिवार के बदले किसी बड़े पंूजीपति, न्यायाधीश या राजनेता के घर की होती तो क्या उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती? मीडिया चीखता, चिल्लाता, नेतागण तीखी प्रतिक्रिया व संवेदना जाहिर करने में व्यस्त रहते। पर यहां तो मामला गरीब, मजदूर, मेहनतकश के परिवार से जुड़ा है जो दो वक्त काम पर न जाए तो भूखा रह जाता है।

प्रतिदिन हजारों बच्चियां गायब हो रही हैं, प्रति मिनट बलात्कार तथा बहन-बेटियों से जबरन वेश्यावृत्ति; पर हम संवेदनशून्य बने हुए हैं। शर्म आती है ऐसी सामाजिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था पर, जो अपनी आधी आबादी को सुरक्षा व सम्मान नहीं प्रदान कर सकती। विडंबना यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों में शामिल पुरुष भी अपनी बहन-बेटी को पूरी तरह सुरक्षित रखना चाहते हैं। अपराधी प्रवृत्ति के लोग स्वयं की बहन-बेटियों के भविष्य को काफी सोच-समझ कर रिश्ते में बांधते हैं ताकि कोई अड़चन न आए, मगर दूसरों के परिवार के लिए वे शैतान का रूप धारण कर लेते हैं, तब स्त्री उन्हें वस्तु के समान दिखती है। दुकान में पड़े किसी खिलौने की भांति वे पैसों से उसे खरीदना चाहते हैं। संवेदनशून्य होकर उसका भोग करना चाहते हैं, और जब मन भर जाए तो उसकी हत्या से भी परहेज नहीं करते।

कुछ मामलों में तो हमारे नए जमाने की फिल्में, गाने व वीडियो कैसेट ऐसा करने को बढ़ावा देते हैं। कहने को तो फिल्में, पत्रिकाएं, नाटक, काव्य, कहानियां समाज का आईना होती हैं और उनके समाधान का रास्ता सुझाती हैं, पर वास्तव में वर्तमान को जी भर कर जीने के मुहावरे के नाम पर ये आईने भविष्य को बर्बाद करने वाले दीखते हैं। चोरी, डकैती व अपहरण पर बनी फिल्में जहां रिकार्डतोड़ कमाई करती हैं वहीं मुद््दा-प्रधान फिल्म दर्शकों को तरसती है। पर यह भी सच है कि जैसी समाज की मांग होती है वैसा ही बाजार हमें उत्पाद उपलब्ध कराता है। अत: हमें कुछ पल रुक कर सोचना होगा कि कहीं हम स्वयं गर्त में जाने को प्रयासरत तो नहीं।

यदि नायक-नायिकाएं स्वयं सस्ती लोकप्रियता के लिए फूहड़ फिल्में व उत्पादों का प्रचार करना बंद कर दें तथा दर्शक स्वयं ऐसी फिल्मों और उत्पादों का बहिष्कार करें तो बेहतर हो।
स्त्रियों के खिलाफ हो रहे अपराध- चाहे वे रिश्ते के नाम पर हों, नौकरी के बहाने से हों या गरीबी के कारण हों- हर हाल में रुकने चाहिए। उनके शोषण के रास्ते बंद होने चाहिए। इसके लिए हमारी बहन-बेटियों को मजबूत होना पडे़गा, अंतिम दम तक लड़ना पड़ेगा। आत्महत्या समाधान नहीं, इससे अपराधियों को ही बढ़ावा मिलता है। यदि आप चाहती हैं आप व आने वाली पीढ़ियां इस आतंक से मुक्तहों तो संग्राम आपको ही छेड़ना पड़ेगा। न्यायपालिका को चाहिए कि बलात्कार, दहेज हत्या, आॅनर किलिंग आदि से संबंधित मामलों की वह त्वरित सुनवाई व कठोरतम दंड के उदाहरण पेश करे तथा सरकार को ऐसी पीड़िताओं के लिए आवासीय सुविधा बनाने का आदेश दे ताकि पीड़िता सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव से निर्भय हो अपराधी को न सिर्फ सजा दिला सके बल्कि अपनी नई दुनिया भी बना सके।

ध्यान रहे वह समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता या आत्मसम्मान का दावा नहीं कर सकता, जो अपनी बहन-बेटियों को अपना न बना सके। मेरी राय में सबकुछ का जिम्मा सरकार पर छोड़ना उचित नहीं है; समाज को स्वयं अपने स्तर से कुछ उपाय करने चाहिए। शराबबंदी एक कारगर तरीका होगा इस अभियान की शुरुआत का। यदि भारत में गुजरात प्रांत और दुनिया में ईरान जैसे देश शराबबंदी लागू कर कुशलतापूर्वक शासन चला सकते है तो यह हमारे देश में भी संभव है। बिहार में अपराध की दर में तेईस प्रतिशत से अधिक कमी आई है, कुल मिलाकर तीन महीनों में। यदि संपूर्ण देश में शराबबंदी लागू हो जाए जो अपराध-मुक्तसमाज की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम होगा, विशेषकर स्त्री-विरोधी अपराधों काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। समान शिक्षा प्रणाली, समयबद्ध न्याय प्रणाली तथा प्रशासनिक पदों पर अधिक से अधिक महिलाओं की नियुक्ति अन्य कारगर कदम हो सकते हैं।