हाल में ही दिल्ली के दक्षिणी हिस्से के घिटोरनी इलाके में सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए उसमें घुसे चार सफाईकर्मियों को दम घुटने के कारण अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। चूंकि इस हादसे से कोई सबक नहीं लिया गया, कुछ दिन बाद लाजपतनगर (दिल्ली) में भी सीवर साफ करते तीन सफाईकर्मियों की सांसें घुट गर्इं। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश के देवास जिला मुख्यालय से करीब साठ किलोमीटर दूर पिपलरावा थाना इलाके के गांव बरदु में लगभग ऐसी ही घटना में चार और सफाईकर्मियों की मौत होने की खबर आई है।
दिल्ली और देवास में जान गंवाने वाले ये सारे सफाईकर्मी जवान थे बल्कि उनमें एक नाबालिग भी था। लेकिन जैसा कि एक विचलित पत्रकार ने पिछले दिनों लिखा भी, न उन्हें शहीद माना जाएगा और न ही उनकी मौतें देशभक्ति के खाते में दर्ज की जाएंगी। इसलिए कि वे कोई सीमा पर तैनात सेना के जवान नहीं थे, जिनके नाम पर इन दिनों देश की राजनीति के हर काले को सफेद बताया जा रहा है या जिनकी मौतों पर शोकाकुल होकर प्रधानमंत्री व गृहमंत्री ट्वीट पर ट्वीट कर डालते हैं और ई-देशभक्तों की फौज फेसबुक पर खून का बदला दुश्मनों के खून से लेने लग जाती है। बेशक सरहद पर जान गंवाने वाले शहीद हैं और हमारी श्रद्धा के पात्र भी।
पर हम दूसरों की सुध कब लेंगे? सीवर में मारे गए सफाईकर्मी हमारा और आपका मल साफ करने वाले ऐसे बेशिनाख्त जन थे, जिन्हें जीवन भर अदृश्य रह कर बेबसी व बेचारगी झेलनी ही थी। दूसरे दलित राष्ट्रपति के शाही राज्यारोहण से भी वे यह उम्मीद नहीं लगा सकते थे कि सुखासीन समाज उनकी जिंदगी न सही, कम से कम मौतों को ही पूरी खबर बन जाने देगा। सरकारें उनके लिए इतनी ही संवेदनशील या गंभीर होतीं तो दिल्ली के उक्त हादसे के पहले से चला आ रहा उनकी ‘गुमनाम शहादतों’ का सिलसिला देवास तक कैसे आता और आगे भी उसके रुक पाने को लेकर नाउम्मीदी क्यों छाई रहती? फिर सेप्टिक टैंकों से उफनने वाली जहरीली गैस से मारे जाने वाले अधिकतर लोगों के पतों और साथ ही नियति में अब भी आंबेडकर कॉलोनियां ही क्यों दर्ज होती हैं? वे शिप्रा रिवैयरा या गॉल्फ लिंक्स या ईस्ट-एंड जैसे नामवाली जगहों में क्यों नहीं रहते और गॉल्फ लिंक्स के निवासी अथाह गरीबी के बीच बनाए अपने नखलिस्तान का नाम आंबेडकर बस्ती क्यों नहीं रखते?
इक्कीसवीं शताब्दी के सत्रहवें साल में भी यह एक कड़वी सच्चाई है कि ऐसे लोग ज्यादातर शराब पीकर, शहरों के मेनहोलों और सेप्टिक टैंकों के अंधेरे में हमारे शरीरों से निकले बजबजाते मल में गले-गले तक उतरते हैं और थोड़ी-सी असावधानी कर बैठें तो वहां की जहरीली बास उनकी जान लेकर ही मानती है।
विगत सात मार्च को बिल्कुल इन्हीं की तरह बंगलुरु के कग्गादास नगर के मेनहोल की जहरीली गैस में दम घुटने के कारण अनजनिया रेड्डी, येरैया और धवंती नायडू की मौत हुई थी, जबकि पिछले साल एक मई को यानी ऐन मजदूर दिवस पर हैदराबाद में एक मेनहोल साफ करते हुए वीरास्वामी और कोटैया का दम घुट गया था। उससे पहले 2015 में दिल्ली के पास नोएडा में इसी तरह धरती के अंदर उतर कर मल साफ करने वाले अशरफ, धान सिंह और प्रेम पाल ने जान गंवाई थी, जबकि कुछ वक्त पहले मुंबई में नाले की सफाई के दौरान भी इसी तरह दो सफाईकर्मियों की मौत हुई थी।
फिर भी सरकारों के पास अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं है कि उनकी मौतों को किस श्रेणी में रखा जाए? उन्हें तो उनको मामूली सफाई कर्मचारियों के स्तर से ऊपर उठा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुप्रचारित स्वच्छता अभियान का सिपाही तक बनाना कबूल नहीं! तभी तो उनके द्वारा गंदगियां साफ करने में जिंदगी गारत कर डालने के बावजूद न्यूज चैनलों और अखबारों में उनकी खोज-खबर लेने तक का रिवाज नहीं है और हुक्मरानों व नौकरशाहों में कोई दिखावे के लिए झाड़ू पकड़ ले तो वे उनके बहुरंगी नयनाभिराम चित्रों से भर जाते हैं। हद तो यह कि ऐसी मौतों को दुर्घटनाओं की कोटि में रखने से भी गुरेज किया जाता है क्योंकि दुर्घटनाएं मान लेने पर उनके लिए किसी न किसी को जिम्मेवार ठहराना होगा।
सोचिए जरा कि उन सफाई कर्मचारियों के लिहाज से यह रवैया कितना क्रूर है, जिनकी जिंदगी और मौत ऐसी बजबजाती गंदगी के बीच घटती है, जिसकी ओर बहुत-से लोग नाक-भौं सिकोड़ कर भी देख नहीं पाते। उनके प्रति यह क्रूरता तब है, जब वे एक दिन भी अपना काम छोड़ दें तो सुखासीन समाज के बड़े हिस्से की दुश्वारियां दुर्निवार हो जाती हंै। पिछले साल दिल्ली नगर निगम के सफाई कर्मचारियों ने वेतन की मांग को लेकर कुछ दिनों की हड़ताल की, तो सारा शहर कूड़े के ढेर में तब्दील होकर रह गया था। किसी तरह हड़ताल खत्म हुई और वे काम पर लौटे तो शानदार रिहाइशों में रहने वालों को राहत मिली। लेकिन सामाजिक व सांस्थानिक या कि व्यवस्थागत क्रूरताओं से सफाईकर्मियों को अब तक राहत नहीं मिली।
सफाई कर्मचारी यूनियनों का आरोप है कि सफाईकर्मियों को इसलिए भी जान से हाथ धोना पड़ता है कि उनके पास सुरक्षा के समुचित उपकरण नहीं होते। देश की सारी तकनीकी प्रगति के बावजूद उन्हें ये उपकरण उपलब्ध कराए जाने को लेकर न सरकारें गंभीर नजर आती हैं और न वे निकाय, जिनके लिए ये कर्मचारी अपनी हड्डियां गलाते हैं। सब चाहते हैं कि सफाई कर्मचारी कोई मांग या शिकायत किए बिना चुपचाप अपना काम करते रहें। वेतन व विनियमितीकरण आदि को लेकर उनकी शिकायतों को भी कई बार लंबे अरसे तक लटकाए रखा जाता है। उनके काम की परिस्थितियों को बेहतर बनाने की कोशिशें तो लगभग न के बराबर हैं।
गौरतलब है कि केंद्र ने इस काम के लिए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग गठित कर रखा है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार मेनहोल, सेप्टिक टैंक, सीवर या फिर रेनवॉटर हार्वेस्टिंग पिट्स की सफाई में लगे कर्मचारियों को आॅक्सीजन मास्क, गम-बूट्स, वॉटरप्रूफ दस्ताने और वर्दी वगैरह उपलब्ध कराना अनिवार्य है। कोर्ट ने कहा है कि बिना सुरक्षा उपकरणों के मेनहोल या सेप्टिक टैंक की सफाई में किसी कर्मचारी की मौत हो तो उसके परिजनों को दस लाख रुपए हर्जाने के तौर पर दिए जाने चाहिए। लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं किया जाता। मौतों का सारा दोष कर्मचारियों पर या ठेकेदार पर डाल दिया जाता है। कई बार सफाई कर्मचारियों के अज्ञान का भी लाभ उठा लिया जाता है, जिनको अपने हकों की पूरी जानकारी नहीं रहती।
दुनिया के अनेक देश सेप्टिक टैंकों या सीवरों में नीचे कर्मचारी उतार कर अथवा हाथ से सफाई की व्यवस्था खत्म कर चुके हैं। कई देशों में यह सफाई कर्मचारियों के बजाय सीवर इंस्पेक्शन कैमरों और उपकरणों से की जाती है। ब्लॉकेज के दौरान सीवर इंस्पेक्शन कैमरे को मेनहोल में उतारा जाता है, जिससे पता चल जाता है कि मेनहोल में कितनी दूरी पर ब्लॉकेज है। फिर दूरी के हिसाब से सफाई उपकरणों से ब्लॉकेज को दूर किया जाता है। यह बेहद आसान प्रक्रिया है, लेकिन चूंकि उसमें कुछ ज्यादा पैसे खर्च होते हैं और सफाईकर्मियों की जान यहां अपेक्षाकृत ‘सस्ती’ है, इसलिए भारत के नगरीय निकायों में इसे नहीं अपनाया जा रहा। किसी को तो उनसे पूछना चाहिए कि सफाईकर्मियों की जिंदगी की कीमत अधिक है या नई सफाई प्रणालियों की?
