संगीता सहाय
आत्मनिर्भरता शब्द अपने आप में कई तथ्य समेटे हुए है। आत्मनिर्भरता का सामान्य अर्थ है, ‘स्वयं पर निर्भर होना’। जो लोग अपनी सामान्य जरूरतों को अपने प्रयासों से पूरा करने में सक्षम हैं वे आत्मनिर्भर की श्रेणी में आते हैं। कहा जा सकता है कि अबोध बालकों, वृद्ध और कुछ खास व्याधियों तथा आलस्य से ग्रस्त लोगों के अलावा सामान्यतया सभी लोग, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आत्मनिर्भर हैं।
साथ ही यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि कोई देश या समाज पूर्ण या सीमित स्तरों पर आत्मनिर्भर तो हो सकता है, पर कोई भी व्यक्ति पूर्ण आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। वह कुछ मामलों में स्वयं पर निर्भर, तो कुछ के लिए दूसरे पर आश्रित रहता ही है। अर्थात आत्मनिर्भरता और पराश्रितता दोनों शब्द साथ-साथ चलते हैं।
हमारे समाज का केंद्र बिंदु परिवार है। इसी के इर्द-गिर्द लगभग शेष सारी संरचनाएं काम करती हैं। परिवार माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी और कुछ अन्य नाते-रिश्तेदारों के योग से बनता है। आज के एकल परिवार के दौर में इसका आकार कुछ छोटा भी हुआ है। पर दोनों ही स्वरूपों में परिवार की धुरी में दो लोग होते हैं- एक सदस्य के ऊपर गृहस्थी के संचालन की जिम्मेदारी होती है, तो दूसरा उस कार्य के लिए धनोपार्जन करता है।
समान्यतया आर्थिक उपार्जन के लिए पुरुष गतिविधियां करता है और स्त्री गृहस्थी का संचालन करती है। संभव है कुछ स्थितियां इसके विपरीत भी हों। इसलिए स्वाभाविक रूप से कहा जा सकता है कि दोनों की जिम्मेदारी समान रूप से अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। एक की भी अनुपस्थिति परिवार रूपी गाड़ी को डावांडोल कर सकती है। यह भी कहा जा सकता है कि इस इकाई की दोनों ही धुरियां अपने आप में आत्मनिर्भर भी हैं और एक-दूसरे पर आश्रित भी।
प्रचलित अर्थ में इसका एक ही अर्थ होता है और वह है, ‘आर्थिक आत्मनिर्भरता’। जैसे ही हम आत्मनिर्भर कहते हैं, तो वह आर्थिक आत्मनिर्भता का ही बोध कराता है। जबकि यह आत्मनिर्भता के कई उपादानों में से एक है। जैसे कोई शैक्षणिक रूप से, शारीरिक क्षमता से, गृहकार्य में, किसी कला या व्यवसाय आदि में से किसी एक में या कई विषयों में एक साथ आत्मनिर्भर और पारंगत हो सकता है, वैसे ही कोई धन की कमाई में भी पारंगत और आत्मनिर्भर हो सकता है।
उपरोक्त प्रचलित अर्थों के अनुसार ही स्त्री की आत्मनिर्भरता को भी मूलत: आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ दिया गया। इस सोच ने न सिर्फ औरत के कामों का अवमूल्यन किया, बल्कि उसके अस्तित्व को ही दोयम बना दिया। दिन के सोलह-सोलह घंटे घरेलू कामों में लगी औरत भी घरेलू और सामाजिक रूप से आश्रित और अक्रियाशील मानी जाने लगी।
फलस्वरूप उसके कर्तव्यों की फेरहिस्त लंबी होती गई और अधिकार कम होते गए। घर को स्वरूप देने वाली औरत के मालिकाना हक में वह घर भी न रहा। सामाजिक विसंगतियों के जाल में पिता की संपत्ति से ‘वास्तविक रूप’ से बेदखल (कानूनी हक के बावजूद) स्त्री, ससुराल में भी दूजे घर से आई मेहमान की हैसियत से ही दो चार होती रही।
और उधार में मिले उपनामों को बदलती कभी पिता और कभी पति की कृपापात्र बनी अपने वजूद की तलाश में गुम होती रही। बदलते वक्त ने जब उसे समझाया कि सम्मान और पहचान का रास्ता ‘अर्थ’ से होकर गुजरता है, तो वह चाहे, अनचाहे खुद को साबित करने के लिए उसी बदले आत्मनिर्भरता के दौर में शामिल होती गई।
ध्यान देने की बात है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी देश की मात्र सत्ताईस फीसद महिला आबादी कामकाजी है। इसमें भी ग्रामीण क्षेत्र की ज्यादातर महिलाएं कृषि और असंगठित क्षेत्र के कार्यों में लगी हैं। अब प्रश्न है, कि क्या शेष महिलाओं को पराश्रित और अक्षम मान लिया जाना चाहिए? यह भी कि जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ‘अपने आप में सक्षम स्त्री’ आर्थिक रूप से सक्षम होने की दिशा में बढ़ी, क्या उसे उन राहों की बदौलत मुक्ति और विकास की राहें हासिल हो पार्इं? क्या उसकी आर्थिक सक्षमता ने एक पूर्ण समतामूलक समाज का निर्माण किया है? स्त्री को दोयम बनाती जड़ परंपराओं और मान्यताओं का छीजना क्या इसके माध्यम से हुआ? और क्या स्त्री-पुरुष समानता के मान्य और सहज प्राकृतिक सिद्धांत को दुबारा सिद्ध करने मात्र के लिए स्त्री की भूमिका में परिवर्तन की आवश्यकता है?
यह सवाल उन औरतों के संदर्भ में है, जिन्होंने आत्मनिर्भरता की कुंठित विवेचना की शिकार होकर अपने मन के विपरीत जाकर बेमेल रास्तों को चुना और दोहरे कामों के बोझ तले पिस रही हैं। और अकसरहां उनके तीस दिनों के अथक कामों से प्राप्त धन पर पति या अन्य लोगों का स्वामित्व ही रहता है। क्योंकि वे पैसे के रखरखाव के लिए अयोग्य करार दी जाती हैं।
एटीएम कार्ड रखने की हकदार वे नहीं होतीं और चंद नोटों और सिक्कों को संभालने के लिए मनीबैग रखने को वे स्वयं ही फिजूलखर्ची मानती हैं। ये ‘आर्थिक रूप से सक्षम औरतें’ अक्सर हमारे आपके गलियों-मोहल्लों में धुंधलाती शाम अपने कांधे पर सामान लादे, चप्पलें चटकाती घरों की ओर भागती दिख जाती हैं। क्योंकि घर पहुंच कर उन्हें परिवार का खाना भी बनाना होता है।
अथक कामों के बोझ से लदी ये औरतें अपनी कथित आत्मनिर्भरता का दंश जीवन भर झेलती हैं। यह सत्य है कि उनकी कमाई से घर में पैसे और भौतिक संसाधनों की बढ़ोतरी होती है, पर उसके बदले में उन्हें क्या हासिल होता है, यह प्रश्न भी विचारणीय है। सवाल घरेलू जीवन जीती उन अधिसंख्य स्त्रियों को लेकर भी है, जो बगैर कोई अपराध किए आत्मनिर्भरता के इस एकपक्षीय सोच की अपमानजनक मार झेल रही हैं।
इन प्रश्नों के जवाब में आर्थिक रूप से सक्षम महिलाओं के जीवन में आए विकासात्मक बदलाव की बात की जा सकती है। इसने सदियों से शोषित और रीढ़-विहीन परंपराओं का मारक प्रहार झेलती औरतों की दशा और दिशा की बेहतरी में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भी सही है कि आर्थिक सक्षमता की जिजीविषा ने आधी आबादी के विकास के कई रास्ते खोले हैं और वह सारे दुरूह मान्य-अमान्य सीमाओं को लांघती अपने लक्ष्य को भेद अपना मुकाम बना रही है। इन तमाम बातों के बावजूद यह प्रश्न अब भी पूर्ववत है।
क्योंकि ये सफलताएं उन्होंने ही हासिल की, जिन्होंने इसका स्वप्न देखा और कोशिशें की। पर उनकी सफलता का दंड उन्हें हरगिज नहीं मिलना चाहिए, जिन्होंने सामान्य घरेलू जीवन का स्वप्न देखा और अपनाया। न ही उनके चुनाव और पसंद को कमजोरी और अपमान का प्रयाय माना चाहिए। हर इंसान को अपनी इच्छानुसार कार्य करने और जिंदगी जीने का मौका मिलना ही उसके स्वतंत्र होने का परिचायक है।
शिक्षा व्यक्ति मात्र के लिए आवश्यक है। बगैर किसी भेद-भाव के उस तक सबकी पहुंच विकास की पहली और आखिरी शर्त है। पर शिक्षा का अर्थ महज डिग्रियां बटोर कर ऊंची नौकरी हासिल करना और पैसे कमाने की मशीन बनना नहीं होता। शिक्षा मनुष्य के भीतर मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक है। उसकी समझ, बुद्धि और कौशल के उन्नयन के लिए आवश्यक है।
साथ ही वह अपनी योग्यता और कर्मठता से अपनी पसंद के कार्यक्षेत्र को चुन कर अपनी बेहतर क्षमता का प्रदर्शन कर सके, इसके लिए आवश्यक है। इसी संदर्भ में कहा जा सकता है कि स्त्री के शिक्षित होने का मतलब सिर्फ अर्थ की प्राप्ति नहीं, बल्कि जीवन की बेहतरी के लिए शिक्षा आवश्यक है। आत्मनिर्भरता का सही और सार्थक अर्थ भी इसी में छिपा है।